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________________ ३४७ जरासंध के दूत का प्रागमन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि गोकूल में और शेष प्रायः सारा जीवन भीषण संघर्षों में बीतने के कारण प्राचार्य संदीपन के पास शिक्षा-ग्रहण का उन्हें यथेष्ट समय नहीं मिला था तथापि वे सर्वकला-विशारद थे। भगवान अरिष्टनेमि तो जन्म से ही विशिष्ट मति, श्रुति एवं अवधिज्ञान के धारक थे। उन्हें भला संसार का कोई भी कलाचार्य या शिक्षाशास्त्री क्या सिखाता? जरासन्ध के दूत का यादव-सभा में प्रागमन यादवों के साथ द्वारिकापुरी में रहते हए बलराम और कृष्ण ने अनेक राजाओं को वश में कर अपनी राज्यश्री का विस्तार किया । यादवों की समद्धि और ऐश्वर्य की यशोगाथाएं देश के सुदूर प्रान्तों में भी गाई जाने लगीं। . जब जरासंध को ज्ञात हुआ कि उसके शत्रु यादवगण तो अतुल धनसम्पत्ति के साथ द्वारिका में देवोपम सुख भोग रहे हैं और उसका पुत्र कालकुमार व्यर्थ ही पतंगे की तरह छल-प्रपंच से अग्नि-प्रवेश द्वारा मारा गया, तो उसने ऋद्ध होकर एक दूत समुद्रविजय के पास द्वारिका भेजा। दूत ने द्वारिका पहुँचकर यादवों की सभा में महाराज समुद्रविजय को सम्बोधित करते हुए जरासंध का उन लोगों के लिए लाया हुआ सन्देश सुनाया "मेरा सेनापति मारा गया, उसकी तो मझे चिन्ता नहीं है क्योंकि अपने स्वामी के लिए रणक्षेत्र में जूझने वाले सुभटों के लिए विजय या प्राणाहुति इन दो में से एक अवश्यंभावी है । पर अपने भुजबल और पराक्रम पर ही विश्वास करने वाले आप जैसे युद्धनीति-निपुण राजारों के लिए इस प्रकार का छलप्रपंच नितान्त अशोभनीय और निन्दाजनक है । आप लोगों ने युद्धनीति का उल्लंघन कर जो कपटपूर्ण व्यवहार कालकुमार के साथ किया है, उसका फल भोगने के लिए उद्यत हो जाइये । त्रिखण्ड भरताधिपति महाराज जरासंध अपने कल्पान्त-कालोपम क्रोधानल में सब यादवों को भस्मीभूत कर डालने के लिए सदलबल आ रहे हैं । अब चाहे आप लोग समुद्र के उस पार चले जाओ, दुर्गम पर्वतों के शिखरों पर चढ़ जानो, चाहे ईश्वर की भी शरसा में चले जायो, तो भी किसी दशा में कहीं पर भी आप लोगों के प्राणों का त्राण नहीं है । अब तो आप लोग यदि डर कर पाताल में भी प्रवेश कर जानोगे तो भी क्रुद्ध शार्दूल जरासंध तुम्हारा सर्वनाश किये बिना नहीं रहेगा।" जरासन्ध के दूत के मुख से इस प्रकार की अत्यन्त कटु और धृष्टतापूर्ण बातें सुनकर अक्षोभ, अचल आदि दशा), बलराम-कृष्ण, प्रद्यम्न, शाम्ब और सब यदुसिंहों के भुजदण्ड फड़क उठे; यहां तक कि त्रैलोक्यैकधीर, अथाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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