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________________ ३४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [बालक प्र० की प्र० बाललीलाएं उत्तुग एवं दुर्गम शैलाधिराजों से घिरी हुई वह द्वारिकापुरी प्रबल से प्रबल शत्रुओं के लिए भी अजेय और दुर्भेद्य थी। बालक अरिष्टनेमि को प्रलौकिक बाललीलाएं जरासन्ध के आतंक से जिस समय यादवों ने मथुरा और शौर्यपुर से निष्क्रमण कर अपने समस्त परिवार स्त्री, पुत्र, कलत्र आदि के साथ समुद्रतट की ओर प्रयारण किया, उस समय भगवान अरिष्टनेमि की आयु लगभग चार, साढ़े चार वर्ष की थी और वे भी अपने माता-पिता तथा बन्धु-बान्धवों के साथ थे। यादवों के द्वारिका नगरी में बस जाने पर बालक अरिष्टनेमि दशों दशा) और राम-कृष्ण आदि को प्रमुदित करते हुए क्रमशः बड़े होने लगे। उनकी विविध बाल-लीलाएं बड़ी ही आकर्षक और अतिशय आनन्दप्रदायिनी होती थीं, अत: उनके साथ खेलने की अद्भुत सुखानभूति के लिए उनसे बड़ी वय के यादवकुमार भी अरिष्टनेमि के सूकोमल छोटे शरीर के अनुरूप अपना कद छोटा बनाने की चेष्टा करते हुए खेला करते थे। बालक अरिष्टनेमि की सभी बाल-लीलाएं और समस्त चेष्टाएं मातापिता, परिजनों एवं नागरिकों को आश्चर्यचकित कर देने वाली होती थीं। यादव कुल के सभी राजकुमारों में बालक अरिष्टनेमि अतिशय प्रतिभाशाली, प्रोजस्वी एवं अनुपम शक्ति-सम्पन्न माने जाते थे । आपके प्रत्येक कार्य एवं चेष्टा को देखकर, देखने वाले बड़े प्रभावित हो जाते थे। उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि यह बालक आगे चलकर महान् प्रतापी महापुरुष होगा और संसार में अनेक महान् कार्य करेगा। राजकीय समुचित लालन-पालन के पश्चात् ज्योंही अरिष्टनेमि कुछ बड़े हुए तो उन्हें योग्य आचार्य के पास विद्याभ्यास कराने की बात सोची गई। पर महाराज समुद्रविजय ने देखा कि बालक अरिष्टनेमि तो इस वय में भी स्वतः ही सर्व विद्यासम्पन्न हैं, उन्हें क्या सिखाया जाये ? महापुरुषों में पूर्वजन्मों की संचित ऐसी अलौकिक प्रतिभा होती है कि वे संसार के उच्च से उच्च कोटि के विद्वानों को भी चमत्कृत कर देते हैं। जिस प्रकार श्रीकृष्ण का बाल्यकाल १ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग ५, पलोक ३८८ २ तन्वन्मुदं दशार्हाणां, भ्रातोश्च हलिकृष्णयोः । परिष्टनेमिर्मगवान्, ववृधे तत्र च क्रमात् ॥२॥ ज्यायांसोऽपि लघूभूय, चिक्रीडः स्वामिना समम् । सर्वेऽपि भ्रातरः क्रीड़ा शैलोद्यानादि भूमिषु ।।३।। [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, वं ८, सन ६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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