________________
द्वारिका नगरी का निर्माण]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
३४५
प्रविष्ट हो जायेंगे तो उनका पीछा करते हुए प्राग में से भी मैं उन्हें बाहर खींचखींचकर मारूगा । सब यादव मेरे डर से आग में कूद पड़े हैं, तो अब मैं भी अपनी प्रतिज्ञा के निर्वाह हेतु आग में कूदूगा और एक-एक यादव को प्राग में से घसीट-घसीटकर मारूंगा।"
यह कहकर कालकुमार हाथ में नंगी तलवार लिये हए क्रोधावेश में परिणाम की चिंता किये बिना चिता की धधकती आग में प्रवेश कर गया और अपने बंधु-बांधवों एवं सैनिकों के देखते ही देखते जलकर भस्मीभूत हो गया। जरासंध की सेना हाथ मलते हुए वापिस राजगृह की ओर लौट पड़ी।
द्वारिका नगरी का निर्माण जब यादवों को कालकूमार के अग्निप्रवेश और जरासन्ध की सेना के लौट जाने की सूचना मिली तो वे प्रसन्नतापूर्वक समुद्रतट की ओर बढ़ने लगे। उन्होंने सौराष्ट्र प्रदेश में रैवत पर्वत के पास आकर अपना खेमा डाला।
वहाँ सत्यभामा ने भान और भामर नामक दो युगल पुत्रों को जन्म दिया एवं कृष्ण ने दो दिन का उपवास कर लवण समुद्र के अधिष्ठाता सुस्थित देव का एकाग्रचित्त से ध्यान किया।
तृतीय रात्रि में सुस्थित देव ने प्रकट हो श्रीकृष्ण को पांचजन्य शंख, बलराम को सुघोष नामक शंख एवं दिव्य-रत्न और वस्त्रादि भेंट में दिये तथा कृष्ण से पूछा कि उसे किस लिए याद किया गया है ?
श्रीकृष्ण ने कहा-'पहले के अर्द्धचक्रियों की द्वारिका नगरी को आपने अपने अंक में छिपा लिया है । अब कृपा कर वह मुझे फिर दीजिए।" . देव ने तत्काल उस स्थल से अपनी जलराशि को हटा लिया । शक्र की आज्ञा से वैश्रवण ने उस स्थल पर बारह योजन लम्बी और ६ योजन चौड़ी द्वारिकापुरी का एक अहोरात्र में ही निर्माण कर दिया । अपार धनराशि से भरे मणिखचित भव्य प्रासादों, सुन्दर वापी-कप-तड़ागों, रमणीय उद्यानों एवं विस्तीर्ण राजपथों से सुशोभित दृढ़ प्राकारयुक्त तथा अनेक गोपुरों वाली द्वारिकापुरी में यादवों ने शुभ-मुहूर्त में प्रवेश किया और वे वहाँ महान् समृद्धियों का उपभोग करते हुए प्रानन्द से रहने लगे।
द्वारिका की स्थिति द्वारिका के पूर्व में शैलराज रेवत, दक्षिण में माल्यवान पर्वत, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गन्धमादन पर्वत था।' इस तरह चारों भोर से '१ तस्याः पुरो रैवतकोऽपाच्यामासीत्तु माल्यवान् । सौमनसाऽद्रि प्रतीच्यामुदीच्यां गन्धमादनः ।।४१८।।
. [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग ५]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org