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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कालकुमार का अग्नि-प्रवेश
नाम के अनुरूप ही सेनापति कालकुमार ने जरासंध के समक्ष प्रतिज्ञा की-"देव ! यादव लोग जहाँ भी गये होंगे उनको मारकर ही मैं लौटूगा । अगर वे मेरे भय से अग्नि में भी प्रवेश कर गये होंगे तो मैं वहां भी उनका पीछा करूंगा।"
... जब यादवों को अपने गुप्तचरों से यह पता चला कि कालकुमार टिड्डी दल के समान अपार सेना लेकर मथुरा की ओर बढ़ रहा है, तो मथा और शौर्यपुर से १८ कोटि यादवों को अपनी चल-सम्पत्ति सहित साथ लेकर समुद्रविजय और उग्रसेन ने दक्षिण-पश्चिम समुद्र की ओर प्रयाण कर दिया। कल्पान्त कालीन विक्षुब्ध समुद्र की तरह कालकुमार की सेना यादवों का पीछा करती हुई बड़ी तेजी के साथ बढ़ने लगी और थोड़े ही समय में विन्ध्य पर्वत की उन उपत्यकाओं के पास पहुंच गयी जहां से थोड़ी ही दूरी पर समस्त यादवों ने पड़ाव डाल रक्खा था।
उस समय हरिवंश की कुलदेवी ने अपनी देव-माया से उस मार्ग पर एक ही द्वार वाला गगनचुम्बी पर्वत खड़ा कर दिया और उसमें अगणित चितायें जला दीं।
___कालकुमार ने उस उत्तुग गिरिराज की घाटी में अपनी. सेना के साथ प्रवेश किया और देखा कि वहाँ अगणित चितायें धांय-धाँय करती हुई जल रही हैं तथा एक बड़ी चिता के पास बैठी हुई एक बुढ़िया हृदयद्रावी करुण-विलाप कर रही है।
कालकुमार ने उस बुढ़िया से पूछा- "वृद्धे ! यह सब क्या है और तुम . . इस तरह फूट-फूटकर क्यों रो रही हो?"
उसने सिसकियां भरते हुए उत्तर दिया-"देव ! त्रिखण्डाधिपति जरासंध के भय से समस्त यादव समुद्र की ओर भागे चले जा रहे थे । जब उन्हें यह सूचना मिली कि साक्षात् काल के समान कालकुमार एक प्रचण्ड सेना के साथ उनका संहार करने के लिए उनके पीछे - पवनवेग से बढ़ता हुआ पा रहा है, तो अपने प्राणों की रक्षा का कोई उपाय न देख कर उन्होंने यहां चिताएं जला लीं और सबने धधकती चितानों में प्रवेश कर आत्मदाह कर लिया है। दशों ही दशाह, बलदेव और कृष्ण भी इन चिताओं में जल मरे हैं । अत: अपने कूटम्बियों के विनाश से दुखित होकर अब मैं भी अग्नि-प्रवेश कर रही हूं।" ..यह कहकर वह महिला धधकती हुई उस भीषण चिता में कूद पड़ी और कालकुमार के देखते २ जलकर राख हो गयी।
.. यह देखकर कालकुमार ने अपने भाई सहदेव, यवन एवं साथ के राजानों से कहा-"मैंने अपने पिता के समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि यदि यादव आग में
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