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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का तेईसवाँ वर्ष
केवलीचर्या का तेईसवाँ वर्ष
__ वर्षाकाल समाप्त होने पर भगवान् नालन्दा से विहार कर विदेह की राजधानी के पास वाणिज्यग्राम पधारे। उन दिनों वाणिज्यग्राम व्यापार का एक अच्छा केन्द्र था । वहाँ के विभिन्न धनपतियों में सुदर्शन सेठ एक प्रमुख व्यापारी था । जब भगवान् वारिणयग्राम के 'दूति पलाश' चैत्य में पधारे तो दर्शनार्थ नगरवासियों का तांता सा लग गया। हजारों नर-नारी भगवान को वन्दन करने एवं उनकी अमृतमयी वाणी को सुनने के लिये वहाँ एकत्र हुए। सुदर्शन भी उनके बीच सेवा में पहुँचा । सभाजनों के चले जाने पर सुदर्शन ने वन्दन कर पूछा--"भगवन् ! काल कितने प्रकार का है ?"
प्रभु ने उत्तर में कहा-"सुदर्शन ! काल चार प्रकार का है :
(१) प्रमाणकाल, (२) यथायुष्क-निवृत्तिकाल, (३) मरणकाल और (४) अद्धाकाल।""
सुदर्शन ने फिर पूछा-"प्रभो ! पल्योपम और सागरोपम काल का भी क्षय होता है या नहीं ?"
सुदर्शन को पल्योपम का काल-मान समझाते हुए भगवान ने उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाया । भगवान् के मुख से अपने बीते जीवन की बात सुनकर सुदर्शन का अन्तर जागृत हुआ और चिन्तन करते हुए उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । अपने पूर्वभव के स्वरूप को देखकर वह गद्गद् हो गया। हर्षाश्रु से पुलकित हो उसने द्विगुरिणत वैराग्य एवं उल्लास से भगवान् को वन्दन किया । श्रद्धावनत हो उसने तत्काल वहीं पर श्रमण भगवान् महावीर के चरणों में श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। फिर क्रमशः एकादशांगी और चौदह पर्वो का अध्ययन कर उसने बारह वर्ष तक श्रमण-धर्म का पालन किया और अन्त में कर्मक्षय कर निर्वाण प्राप्त किया ।२।
गौतम और प्रानन्द श्रावक एक बार गणधर गौतम भगवान् की आज्ञा से वाणिज्य ग्राम में भिक्षा के लिये पधारे । भिक्षा लेकर जब वे 'द्रति पलाश' चैत्य की ओर लौट रहे थे तो मार्ग में 'कोल्लाग सनिवेश' के पास उन्होंने प्रानन्द श्रावक के अनशन ग्रहण की बात सुनी । गौतम के मन में विचार हुआ कि आनन्द प्रभु का उपासक शिष्य है और उसने अनशन कर रखा है, तो जाकर उसे देखना चाहिये । ऐसा विचार कर वे 'कोल्लाग सन्निवेश' में आनन्द के पास दर्शन देने पधारे। १ भगवती सूत्र, शतक ११, उ० ११, सूत्र ४२४ । २ भग० श०, श० ११, उ• ११, सूत्र ४३२ ।
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