SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 733
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गौतम और मानन्द श्रावक] भगवान् महावीर गौतम को पास आये देख कर आनन्द अत्यन्त प्रसन्न हुए और विनयपूर्वक बोले-“भगवन् ! अब मेरी उठने की शक्ति नहीं है, अतः जरा चरण मेरी ओर बढ़ायें, जिससे कि मैं उनका स्पर्श और वन्दन कर लू।" गौतम के समीप पहुँचने पर प्रानन्द ने वन्दन किया और वार्तालाप के प्रसंग से वे बोले-"भगवन् ! घर में रहते हुए गृहस्थ को अवधिज्ञान होता है क्या ?" गौतम ने कहा- "हाँ" आनन्द फिर बोले- "मुझे गहस्थ धर्म का पालन करते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है । मैं लवण समुद्र में तीनों ओर ५००-५०० योजन तक, उत्तर में चुल्ल हिमवंत पर्वत तक तथा ऊपर सौधर्म देवलोक तक और नीचे 'लोलच्चुअ' नरकावास तक के रूपी पदार्थों को जानता और देखता हूँ।" इस पर गौतम सहसा बोले- "पानन्द ! गहस्थ को अवधिज्ञान तो होता है, पर इतनी दूर तक का नहीं होता । अतः तुमको इसकी आलोचना करनी चाहिए।" आनन्द बोला-"भगवन् ! जिन-शासन में क्या सच कहने वालों को आलोचना करनी होती है ?" गौतम ने कहा--"नहीं, सच्चे को आलोचना नहीं करनी पड़ती।" यह सुन कर आनन्द बोला-"भगवन् ! फिर आपको ही आलोचना करनी चाहिए।" मानन्द की बात से गौतम का मन शंकित हो गया । वे शीघ्र ही भगवान के पास 'दूति पलाश' चैत्य में आये । भिक्षाचर्या दिखाकर मानन्द की बात सामने रखी और बोले-"भगवन् ! क्या प्रानन्द को इतना अधिक अवधिज्ञान हो सकता है ? क्या वह आलोचना का पात्र नहीं है ?" भगवान ने उत्तर में कहा- "गौतम ! प्रानन्द श्रावक ने जो कहा, वह ठीक है । उसको इतना अधिक अवधिज्ञान हुआ है यह सही है, अत: तुमको ही आलोचना करनी चाहिये ।" भगवान् की आज्ञा पाकर बिना पारणा किये ही गौतम मानन्द के पास गये और उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर, आनन्द से क्षमायाचना की।' ग्राम नगरादि में विचरते हुए फिर भगवान् वैशाली पधारे और वहीं पर इस वर्ष का वर्षावास पूर्ण किया। १ उपास० १, गाथा ८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy