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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का चौबीसवां वर्ष
देवलीचर्या का चौबीसवाँ वर्ष वैशाली का चातुर्मास पूर्ण कर भगवान् कोशल भूमि के ग्राम-नगरों में धर्मोपदेश करते हुए साकेतपुर पधारे । साकेत कोशल देश का प्रसिद्ध नगर था। वहाँ का निवासी जिनदेव श्रावक दिग्यात्रा करता हुआ 'कोटिवर्ष' नगर पहुंचा। उन दिनों वहाँ म्लेच्छ का राज्य था । व्यापार के लिये आये हए जिनदेव ने 'किरातराज' को बहुमूल्य रत्न आभूषणादि भेंट किये। अदृष्ट पदार्थों को देखकर किरातराज बहुत प्रसन्न हुआ और बोला- “ऐसे रत्न कहाँ उत्पन्न होते हैं ?"
जिनदेव बोला-“राजन् ! हमारे देश में इनसे भी बढ़िया रत्न उत्पन्न होते हैं।"
किरातराज ने उत्कण्ठा भरे स्वर में कहा--"मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे यहाँ चलकर उन रत्नों को देखू, पर तुम्हारे राजा का डर लगता है।"
जिनदेव ने कहा- “महाराज ! राजा से डर की कोई बात नहीं है । फिर भी आपकी शंका मिटाने हेतु मैं उनकी अनुमति प्राप्त कर लेता हूँ।"
ऐसा कह कर जिनदेव ने राजा को पत्र लिखा और उनसे अनमति प्राप्त कर ली। किरातराज भी अनुमति प्राप्त कर साकेतपुर आये और जिनदेव के यहाँ ठहर गये । संयोगवश उस समय भगवान् महावीर साकेतपुर पधारे हुए थे। नगर में महावीर के पधारने के समाचार पहुँचते ही महाराज शत्रुजय प्रभु को वन्दन करने निकल पड़े । नागरिक लोग भी हजारों की संख्या में भगवान की सेवा में पहुँचे । नगर में दर्शनार्थियों की बड़ी हलचल थी।
किरातराज ने जनसमूह को देखकर जिनदेव से पूछा-"सार्थवाह ! ये लोग कहाँ जा रहे हैं ?" जिनदेव ने कहा-"महाराज ! रत्नों का एक बड़ा व्यापारी आया है, जो सर्वोत्तम रत्नों का स्वामी है । उसी के पास ये लोग जा रहे हैं।"
किरातराज ने कहा-"फिर तो हमको भी चलना चाहिये।" यह कह कर वे जिनदेव के साथ धर्म-सभा की ओर चल पड़े । तीर्थंकर के छत्रत्रय और सिंहासन आदि देखकर किरातराज चकित हो गये । किरातराज ने महावीर के चरणों में वन्दन कर रत्नों के भेद और मूल्य के सम्बन्ध में पूछा।
महावीर बोले-“देवानुप्रिय ! रत्न दो प्रकार के हैं, एक द्रव्यरत्न और दूसरा भावरत्न । भावरत्न के मुख्य तीन प्रकार हैं :- (१) दर्शन रत्न, (२) ज्ञान रत्न और (३) चारित्र रत्न ।" भावरत्नों का विस्तृत वर्णन करके प्रभ ने कहा-"यह ऐसे प्रभावशाली रत्न हैं, जो धारक की प्रतिष्ठा बढ़ाने के अतिरिक्त
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