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________________ केवलीचर्या का पच्चीसौं वर्ष] भगवान् महावीर ६७१ उसके लोक और परलोक दोनों का सुधारते हैं । द्रव्यरत्नों का प्रभाव परिमित है । वे वर्तमान काल में ही सुखदायी होते हैं पर भावरत्न भव-भवान्तर में भी सद्गतिदायक और सुखदायी होते हैं !" भगवान का रत्न-विषयक प्रवचन सुनकर किरातराज बहुत प्रसन्न हुआ। वह हाथ जोड़कर बोला-"भगवन् ! मुझे भावरत्न प्रदान कीजिये ।" भगवान् ने रजोहरण और मुखवस्त्रिका दिलवाये जिनको किरात राज ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और वे भगवान् के श्रमण-संघ में दीक्षित हो गये।' फिर साकेतपुर से विहार कर भगवान पांचाल प्रदेश के कम्पिलपुर में पधारे । प्रभु ने वहाँ से सूरसेन देश की अोर प्रस्थान किया। फिर मथरा, सौरिपुर, नन्दीपुर आदि नगरों में भ्रमण करते हुए प्रभु पुनः विदेह की ओर पधारे और इस वर्ष का वर्षाकाल आपने मिथिला में ही व्यतीत किया। केवलीचर्या का पच्चीसवाँ वर्ष वर्षाकाल समाप्त होने पर भगवान् ने मगध की अोर प्रयाण किया। गाँव-गाँव में निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश करते हुए प्रभु राजगृह पधारे और वहाँ के 'गुरणशोल' चैत्य में विराजमान हुए । गुणशील चैत्य के पास अत्य तीथियों के बहुत से आश्रम थे। एक बार धर्म-सभा समाप्त होने पर कुछ तैर्थिक वहाँ आये और स्थविरों से बोले-"आर्यो! तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत हो, अविरत हो, यावत् बाल हो।" अन्य तीथिकों की ओर से इस तरह के आक्षेप सुनकर स्थविरों ने उन्हें शान्तभाव से पूछा- "हम असंयत और बाल कैसे हैं ? हम किसी प्रकार भी अदत्त नहीं लेकर दीयमान ही लेते हैं।" इत्यादि प्रकार से तैथिकों के आक्षेप का शान्ति के साथ युक्तिपूर्वक उत्तर देकर स्थविरों ने उनको निरुत्तर कर दिया। वहाँ पर गति प्रपात अध्ययन की रचना की गई। कालोदायी के प्रश्न कालोदायी श्रमण ने एक बार भगवान् को वन्दना कर प्रश्न किया"भगवन् ! जीव अशुभ फल वाले कर्मों को स्वयं कैसे करता है ?" भगवान् ने उत्तर देते हुए कहा-“कालोदायी ! जैसे कोई दूषित पक्वान्न या मादक पदार्थ का भोजन करता है, तब वह बहुत रुचिकर लगता है। खाने १ "कोडीवरिस चिलाए, जिणदेवे रयणपुच्छ कहणाय ।" प्रावश्यक नियुक्ति, दूसरा भाग, गा०, १३०५ की टीका देखिये। २ भगवती, श० ८, उ० ७, सूत्र ३३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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