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समय का महान भारत] भगवान् श्री परिष्टनेमि समुद्रतट की भोर बढ़ा और उसने समुद्र में जाते हुए कृष्ण के रथ की श्वेत और पीत वर्ण की ध्वजाओं के अग्रभाग देखे । उसने अपने शंख में इस प्राशय की ध्वनि को पूरित कर शंखनाद किया-"यह मैं कपिल वासुदेव मापसे मिलने की उत्कंठा लिये आया हूँ। कृपा कर लौटिये।"
श्रीकृष्ण ने भी शंख-निनाद से ही उत्तर दिया-"हम बहुत दूर निकल माये हैं। प्रब प्राप पाने को कुछ न कहिये।"
शंख-ध्वनि से कृष्ण का उत्तर पा कपिल अमरकंका नगरी पहुँचा । उसने पप्रनाभ की भर्त्सना कर उसे निर्वासित कर दिया एवं उसके पुत्र को अमरकंका के राजसिंहासन पर आसीन किया।
इधर लवण समद्र पार कर कृष्ण ने पाण्डवों से कहा-"मैं सुस्थित देव को धन्यवाद देकर पाता हूँ, तब तक माप लोग गंगा के उस पार पहुँच जाइये।"
पाण्डवों ने नाव में बैठ कर गंगा के प्रबल प्रवाह को पार किया और परस्पर यह कहते हुए कि प्राज श्रीकृष्ण के बल को देखेंगे कि वे गंगा. के इस प्रतितीव्र प्रवाह को कैसे पार करते हैं, नाव को वहीं रख लिया।
सुस्थित देव से विदा हो कृष्ण गंगा तट पर पाये और वहाँ नाव न देख कर एक हाथ से घोड़ों सहित रथ को पकड़े दूसरे हाथ से जल में तैरते हुए गंगा को पार करने लगे। पर गंगा के प्रवाह के बीचोंबीच पहुंचते २ वे थक गये और सोचने लगे कि बिना नाव के पाण्डवों ने गंगा नदी पार कर ली, वे बड़े सशक्त हैं। कृष्ण के मन में यह विचार उत्पन्न होते ही गंगा के प्रवाह की गति धीमी पड़ गई और उन्होंने सहज ही गंगा को पार कर लिया।
गंगा के तट पर पहुंचते ही कृष्ण ने पाण्डवों से प्रश्न किया-"आप लोगों ने गंगा को कैसे पार कर लिया ?"
पाण्डवों ने उत्तर दिया-"नाव से।"
कृष्ण ने पूछा--"फिर. आप लोगों ने मेरे लिए नाव क्यों नहीं भेजी ?" १ कपिलो विष्णुरेषोऽहमुत्कस्त्वां द्रष्टुमागतः । तद्वलस्वेत्यक्षराव्यं, शंखं दध्मौ स शाङ्गभृत् ॥७२।। प्रागमाम वयं दूरं त्वया वाच्यं न किंचन । इति व्यक्ताक्षरध्वानं, शंख कृष्णोऽप्यपूरयत् ।।७३।।
[त्रिषष्टि शलाका पु. चरित्र, पर्व ८, सर्ग १०] २ द्रक्ष्यामोऽद्य बलं विष्णोनीरत्रव विधार्यताम् ।
[त्रिषष्टि शलाका पु० च०, पर्व ८, सर्ग १०, श्लो. ७८]
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