SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ भगवान् परिष्टनेमि के द्रोपदी ने कहा - "यदि प्रारणों की कुशल चाहते हो तो स्त्री के कपड़े पहन कर मेरे पीछे-पीछे चले श्राश्रो ।” Yor भयकंपित पद्मनाभ ने तत्काल अबला नारी का वेष बनाया और द्रौपदी को आगे कर उसके पीछे-पीछे जा उसने श्री कृष्ण के चररणों में नमस्कार किया । शरणागतवत्सल कृष्ण ने भी उसे अभयदान दिया श्रौर द्रौपदी को पाण्डवों के पास ले प्राये ।" तदनन्तर द्रौपदी सहित वे सब छह रथों पर भारूढ़ हो, जिस पथ से प्राये थे उसी पथ से लौट पड़े । उस समय धातकीखण्ड की चम्पानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में वहाँ के तीर्थंकर मुनिसुव्रत के समवसरण में बैठे हुए घातकीखण्ड के वासुदेव कपिल ने कृष्ण द्वारा किये गये शंखनाद को सुन कर जिनेन्द्र प्रभु से प्रश्न किया- "प्रभो ! मेरे शंखनाद के समान यह किसका शंखनाद कर्णगोचर हो रहा है ?" द्रौपदी - हरण का सारा वृत्तान्त सुनाते हुए सर्वज्ञ प्रभु मुनिसुव्रत ने कहा"कपिल ! जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के त्रिखण्डाधिपति वासुदेव कृष्ण द्वारा किया हुआ यह शंख - निनाद है ।" कपिल ने कहा - "भगवन् ! मुझे उस प्रतिथि का स्वागत करना चाहिए ।" भगवान् मुनिसुव्रत ने कहा - " कपिल जिस तरह दो तीर्थंकर श्रौर दो चक्रवर्ती एक जगह नहीं मिल पाते, उसी प्रकार दो वासुदेव भी नहीं मिल सकते । हाँ तुम कृष्ण की श्वेत-पीत ध्वजा के अग्रभाग को देख सकोगे ।"२ भगवान् से यह सुन कर कपिल वासुदेव श्रीकृष्ण वासुदेव से मिलने की इच्छा लिये कृष्ण के रथ के पहियों का अनुसरण करता हुआ त्वरित गति से १ साप्यूचे मां पुरस्कृत्य, स्त्रीवेशं विरचय्य च । प्रयाहि शरणं कृष्णं, तथा जीवसि नान्यथा ।। ६१ ।। इत्युक्तः स तथा चक्रे, नमश्चक्रे च शाङ्गिणम् । शरण्यो वासुदेवोऽपि मा भैषीरित्युवाच तम् ॥ ६२ ॥ [ त्रिषष्टि शलाका पु० चरित्र, पर्व ८ सर्ग १० ] २ तए ग मुरिण सुब्बए रहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी, गो खलु देवाणुप्पिया एवं भूयं वा ३ जणं अरिहंता वा श्ररहंतं पासंति, चक्कवटी वा चक्कवट पासति..... .....वासुदेवा वा वासुदेवं पासन्ति । तह वि य गं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवरणसमुद्द मज्मरणं बीईवयमारणस्स सेया पीयाइं धयग्गाई पासिहिसि । [ ज्ञाता धर्म कथा, सूत्र १, अध्याय १६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy