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समय का महान् पाश्चर्य]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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सुस्थित देव ने कहा--"पद्मनाभ के एक मित्र देव ने द्रौपदी का हरण कर उसे सौंपा है, उसी प्रकार मैं द्रौपदी को वहाँ से आपके पास ले पाऊँ अथवा आप आज्ञा दें तो पद्मनाभ को सदलबल समुद्र में डुबो दूं और द्रौपदी आपको सौंप दूं।"
श्री कृष्ण ने कहा-"इतना कष्ट करने की आवश्यकता नहीं । हमारे छहों के रथ लवण सागर को निर्बाध गति से पार कर सकें, ऐसा प्रबन्ध कर दो। हम खुद ही जाकर द्रौपदी को लायें, यह हमारे लिए शोभनीय कार्य होगा।"
सुस्थित देव ने श्रीकृष्ण के इच्छानुसार प्रबन्ध कर दिया और छहों रथ स्थल की तरह विस्तीर्ण लवणोदधि को पार कर अमरकंका पहुँच गये।
कृष्ण ने अपने सारथि दारुक को पद्मनाभ के पास भेज कर द्रौपदी को लौटाने को कहलवाया' पर पद्मनाभ यह सोचकर कि ये छह आदमी मेरी अपार सेना के सामने क्या कर पायेंगे, युद्ध के लिए सन्नद्ध हो पा डटा।
पाण्डवों के इच्छानुसार कृष्ण ने पहले पाण्डवों को पद्मनाभ से युद्ध करने की अनुमति दी, पर वे पद्मनाभ के अपार सैन्यबल से पराजित हो कृष्ण के पास लौट आये।
तदनन्तर श्री कृष्ण ने पांचजन्य शंख का महाभयंकर घोष किया और साङ्ग-धनुष की टंकार लगाई तो पद्मनाभ की दो तिहाई सेना नष्टप्राय हो तितर-बितर हो गई और भय से थर-थर काँपताहमा पद्मनाभ एक तिहाई अपनी बची-खुची भयत्रस्त सेना के साथ अपने नगर की ओर भाग खड़ा हुआ।
__ पद्मनाभ ने नगर के अन्दर पहुँच कर अपने नगरद्वार के लोह-कपाट बन्द कर दिये और रनिवास में जा छूपा।
इधर श्री कृष्ण ने नृसिंह रूप धारण कर एक हत्यल (हस्ततल) के प्रहार से ही नगर के लोह-कपाटों को चूर्ण कर दिया और वे सिंह-गर्जना करते हुए पद्मनाभ के राज-प्रासाद की ओर बढ़ चले । उनकी सिंह-गर्जना से सारी अमरकंका हिल उठी और शत्रुओं के दिल दहल गये ।
साक्षात् महाकाल के समान अपनी ओर झपटते श्री कृष्ण को देख कर पद्मनाभ द्रौपदी के चरणों में जा गिरा और प्राण भिक्षा माँगते हुए गिड़गिड़ा कर कहने लगा-"देवि ! क्षमा करो, मैं तुम्हारी शरण में हैं, इस कराल कालोपम केशव से मेरी रक्षा करो।" १ ज्ञाता धर्म कमा १११६
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