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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० परि० का महान् पाश्चर्य
पाण्डवों ने हँसते हुए कहा--."आपके बल की परीक्षा करने के लिए।"
कृष्ण उस उत्तर से अतिक्रुद्ध हो बोले-'मेरे बल की परीक्षा क्या अभी भी अवशिष्ट रह गई थी ? अथाह-अपार लवण समद्र को पार करने और अमरकंका की विजय प्राप्त करने के पश्चात भी आप लोगों को मेरा बल ज्ञात नहीं
हुआ ?"
यह कहते हए कृष्ण ने लौह-दण्ड से पाण्डवों के रथों को चकनाचूर कर डाला और उन्हें अपने राज्य से बाहर चले जाने का आदेश दिया।
तदनन्तर श्रीकृष्ण अपनी सेना के साथ द्वारिका की ओर चल पडे और पाँचों पाण्डव द्रौपदी सहित हस्तिनापुर प्राये । उन्होंने माता कुन्ती से सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
सारा वृत्तान्त सुन कर कुन्ती द्वारिका पहुंची और श्रीकृष्ण से कहने लगी-"कृष्ण ! तुम्हारे द्वारा निर्वासित मेरे पुत्र कहाँ रहेंगे ? क्योंकि इस भरताद्ध में तो तिल रखने जितनी भूमि भी ऐसी नहीं है, जो तुम्हारी न हो।"
कृष्ण ने कहा-"दक्षिण सागर के तट के पास पाण्डु-मथुरा' नामक नया नगर बसा कर आपके पुत्र वहाँ रहें ।
कुन्ती के लौटने पर पाण्डवों ने दक्षिण समुद्र के तट के पास पाण्डु-मथुरा बसाई और वहाँ रहने लगे।'
उधर श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर अपनी बहिन सुभद्रा के पौत्र एवं अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को अभिषिक्त किया।
१ (क) तं गच्छंतु णं पंच पंडवा दाहिणिल्लवेयालि तत्थ पंडु महुरं निवेसंतु...............
[जाता धर्म कथा, ११६] (ख) कृष्णोऽप्यूचे दक्षिणाब्धे रोषस्यभिनवां पुरीम् । निवेश्य पाण्डुमथुरा, वसन्तु तव सूनवः ॥११॥
[त्रिषष्टि स. पू. परित्र, प ८, सर्ग १०] २ ..... "पंडु महुरं नगरं निवेसंति ।
[भाता. ११६] ३ कृष्णोऽपि हस्तिनापुरेऽभिविषेत्र परीक्षितम् ।..........
[त्रिषष्टि श. पु. प., पर्व ८, सर्ग १०, श्लो. ९३]
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