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________________ हारिका का भविष] भगवान् श्री परिष्टनेमि जिस स्थान पर कृष्ण ने क्रुद्ध हो पाण्डवों के रथों को तोड़ा था, वहां कालान्तर में 'रथमर्दन' नामक नगर बसाया गया।' द्वारिका का भविष्य भगवान् अरिष्टनेमि भारतवर्ष के अनेक प्रान्तों में अपने प्रमोष अमृतमय उपदेशों से भव्य प्राणियों का उद्धार करते हुए द्वारिका पधारे । भगवान् के पधारने का समाचार सुन कर कृष्ण-बलराम अपने समस्त राज परिवार के साथ समवसरण में गये और भगवान को वन्दन कर यथास्थान बैठ गये। द्वारिका और उसके आसपास की बस्तियों का जनसमूह भी समवसरण में उमड़ पड़ा। देशना के पश्चात कृष्ण ने सविधिवन्दन कर प्रांजलिपूर्वक भगवान् से पूछा--"भगवन् ! सुरपुर के समान इस द्वारिका का इस विशाल मौर. समृद्ध यदुवंश का तथा मेरा अन्त कालवश स्वतः ही होगा अथवा किसी निमित्त से, किसी दूसरे व्यक्ति के हाथ से होगा।" भगवान् ने कृष्ण के प्रश्न का उत्तर देते हुए फरमाया-"कृष्ण ! धोर तपस्वी पराशर के पुत्र ब्रह्मचारी परिव्राजक पायन को शाम्ब प्रादि यादव. कुमार सुरापान से मदोन्मत्त हो निर्दयतापूर्वक मारेंगे । इससे क्रुद्ध हो द्वैपायन यादवों के साथ ही साथ द्वारिका को जलाने का निदान कर देव होगा और वह यादवों सहित द्वारिका नगरी को जला कर राख कर डालेगा। तुम्हारा प्राणान्त तुम्हारे बड़े भाई जराकुमार के बाण से कौशाम्बी वन में होगा।" - - - त्रिकालदर्शी सर्वश प्रभु के उत्तर को सुनकर सभी श्रोता स्तब्ध रह गये । सबकी घृणादृष्टि जराकुमार पर पड़ी । जराकुमार प्रात्मग्लानि से बड़ा खिन्न हुप्रा । उसने तत्काल उठ कर प्रभु को प्रणाम किया और अपने आपको इस घोर कलंकपूर्ण पातक से बचाने के लिए केवल धनुष-बाण ले द्वारिका से प्रस्थान कर वनवासी बन गया। १ ..........."लोहदण्ड परामुसह पंचण्हं पंडवाणं रहे सूचूरेइ, निविसए प्राणवेइ..."तत्य रणं रहमद्दणे नामं कोडे निविट्ठे । [माता धर्म कथा. सु. १, प्र. १६] २ पवन महापुरिस परिय में बलदेव द्वारा प्रश्न किये जाने का उल्लेख है। यथा-"मवाब सरेण य पुब्धिय बलदेवेणं जहाभगवं केचिराउकालामो इमीए परीए प्रवसाणं पवि. •स्साह ? मोपा समासामो बासुदेवस्स य?" [चउवन महापुरिस परियं, पृ. १९८] ३ त्रिषष्टि जलाका पुरुष चरित्र, पर्व ८, सर्ग ११, श्लो. ३ से ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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