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भगवान् श्री पद्मप्रभ पूर्वभव
भगवान् सुमतिनाथ के पश्चात् छठे अन्य तीर्थंकरों की तरह आपने भी राजा की विशिष्ट योग्यता उपार्जित की ।
तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ स्वामी हुए । अपराजित के भव में तीर्थंकर पद
सुसीमा नगरी के महाराज अपराजित ऐसे धर्मपूर्ण व्यवहार वाले थे कि जैसे सदेह धर्म ही हों । इन्हें न्याय ही मित्र, धर्म ही बन्धु और गुरण- मूह ही सच्चा धन प्रतीत होता था । अन्य मित्र, बन्धु और धन आदि बाहरी साधनों में उनकी प्रीति नहीं थी ।
एक दिन भूपति ने सोचा कि ये बाह्य साधन जब तक मुझको नहीं छोड़ें तब तक पुरुषार्थ का बल बढ़ाकर मैं ही इनको त्याग दूं तो श्रेयस्कर होगा । इस प्रकार विचार करके उन्होंने पिहिताश्रव मुनि के चरणों में संयम ग्रहण कर लिया और प्रर्हद्-भक्ति आदि स्थानों की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया ।
अन्त समय में समाधि के साथ आयु पूर्ण कर वे ३१ सागर की परम स्थिति वाले ग्रैवेयक देव हुए ।
जन्म
देव भव की स्थिति पूर्ण कर अपराजित के जीव ने कोशाम्बी नगरी के महाराजा धर के यहां तीर्थंकर रूप में जन्म लिया । वह माघ कृष्णा षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में देवलोक से च्यवन कर माता सुसीमा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । उसी रात्रि को महारानी सुसीमा ने चौदह महाशुभस्वप्न देखे |
फिर कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन चित्रा नक्षत्र में माता ने सुखपूर्वक पुत्र रत्न को जन्म दिया । जन्म के प्रभाव से लोक में सर्वत्र शान्ति और हर्ष की लहर दौड़ गई ।
नामकररण
गर्भ काल में माता को पद्म (कमल) की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुश्रा और बालक के शरीर की प्रभा पद्म के समान थी, इसलिए इनका नाम पद्मप्रभ रक्खा गया ।'
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१ " गब्भत्थे य भगवम्मि जरगणीए पउमसयरणीयम्मि दोहलो प्रासि' तितेण भगव जहत्थमेव पउमप्पभो' त्तिणामं कथं ।" चउप्पन महापुरिस चरियं, पृ० ८३
पद्मवर्णं पद्मचिन्हं, सा देवी सुषुवे सुतं । त्रि. ३३४ ३८
पद्मशय्या दोहदोऽस्मिन् यन्मातुर्गर्भगेऽभवत् ।
पद्माभवत्यमुळे पद्मप्रभ इत्याह्वयत् पिता । त्रि. ३।४।५१
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