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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[२. (निन्हव) तिष्यगुप्त
बहुत कुछ समझाने पर भी जमालि की भगवान के वचनों पर श्रद्धा, प्रतीति नहीं हई और वह भगवान के पास से चला गया। मिथ्यात्व के अभिनिवेश से उसने स्व-पर को उन्मार्गगामी बनाया और बिना पालोचना के मरण प्राप्त कर किल्विषी देव हुआ।
२. (निन्हव) तिष्यगुप्त भगवान महावीर के केवलज्ञान के सोलह वर्ष बाद दूसरा निन्हव तिष्यगुप्त हुआ। वह प्राचार्य वसु का, जो कि चतुर्दश पूर्वविद् थे, शिष्य था। एक बार प्राचार्य वसु राजगह के गणशील चैत्य में पधारे हुए थे। उनके पास आत्मप्रवाद का आलापक पढ़ते हुए तिष्यगुप्त को यह दृष्टि पैदा हुई कि जीव का एक प्रदेश जीव नहीं, वैसे दो, तीन, संख्यात आदि भी जीव नहीं-किन्तु असंख्यात प्रदेश होने पर ही उसे जीव कहना चाहिये। इसमें एक प्रदेश भी कम हो तो जीव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जीव लोकाकाश-प्रदेश तुल्य है', ऐसा शास्त्र में कहा है।
इस आलापक को पढ़ते हुए तिष्यगुप्त को नय-दृष्टि का ध्यान नहीं होने से विपर्यास हो गया। उसने समझा कि अन्ति प्रदेश में ही जीवत्व है। गुरु द्वारा विविध प्रकार से समझाने पर भी तिष्यगुप्त की धारणा जब नहीं बदली तो गुरु ने उसे संघ से बाहर कर दिया।
स्वच्छन्द विचरता हा तिष्यगप्त 'पामलकल्पा' नगरी में जाकर 'प्राम्रसालवन में ठहरा। वहाँ 'मित्रश्री' नाम का एक श्रावक था। उसने तिष्यगुप्त को निन्हव जानकर समझाने का उपाय सोचा। उसने सेवक-पुरुषों द्वारा भिक्षा जाते हुए तिष्यगुप्त को कहलाया 'आज आप कृपा कर मेरे घर पधारें।" तिष्यगुप्त भी भावना समझ कर चला गया। मित्रश्री ने तिष्यगुप्त को बैठा कर बड़े आदर से विविध प्रकार के अन्न-पान-व्यञ्जन और वस्त्रादि लाकर देने को रखे और उनमें से सबके अन्तिम भाग का एक-एक करण लेकर मुनि को प्रतिलाभ दिया। तिष्यगुप्त यह देखकर बोले-"श्रावक ! क्या तुम हँसी कर रहे हो या हमको विधर्मी समझ रहे हो?"
श्रावक ने कहा-"महाराज! आपका ही सिद्धान्त है कि अन्तिम प्रदेश जीव है, फिर मैंने गलती क्या की है ? यदि एक करण में भोजन नहीं मानते तो आपका सिद्धान्त मिथ्या होगा।"
मित्रश्री की प्रेरणा से तिष्यगुप्त समझ गये और श्रावक मित्रश्री ने भी १ विशेषावश्यक, गा. २३३३ से २३३६ ।
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