________________
जमालि] भगवान् महावीर
०१७ प्रथम समय की क्रिया प्रथम समय में और दूसरे समय की क्रिया दूसरे समय में ही कार्य करेगी। इस प्रकार प्रति-समय भावी क्रियाएं प्रति समय होने वाले पर्यायों का कारण हो सकती हैं, उत्तरकाल भावी कार्य के लिये नहीं, प्रतः महावीर का 'करमारणे कडे' सिद्धान्त सत्य है ।
जमालि इस भाव को नहीं समझ सका । उसने सोचा कि पूर्ववर्ती क्रियाओं में जो समय लगता है, वह सब उत्तरकालभावी कार्य का ही समय है। पट-निर्माण के प्रथम समय में प्रथम तन्तु, फिर दूसरा, तीसरा आदि, इस प्रकार प्रत्येक का समय अलग-अलग है। जिस समय जो क्रिया हुई, उसका फल उसी समय हो गया । विशेषावश्यक भाष्य में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।
जमालि को जिस समय 'बहुरत दृष्टि' उत्पन्न हुई, उस समय भगवान् महावीर चंपा में विराजमान थे। जमालि भी कुछ काल के बाद जब रोग से मुक्त हुआ, तब सावत्थी के कोष्ठक चैत्य से विहार कर चम्पा नगरी आया और पूर्णभद्र उद्यान में श्रमण भगवान महावीर के पास उपस्थित होकर बोला"देवानुप्रिय ! जैसे मापके बहुत से शिष्य छद्मस्थ विहार से विचरते हैं, मैं वैसे छद्मस्थ विहार से विचरने वाला नहीं हूँ। मैं केवलज्ञान को धारण करने वाला अरहा, जिन केवली होकर विचरता है।"
जमालि की असंगत बात सुन कर गौतम ने कहा-"जमालि ! केवली का ज्ञान पर्वत, स्तूप, भित्ति प्रादि में कहीं रुकता नहीं, तुम्हें यदि केवलज्ञान हुआ है तो मेरे दो प्रश्नों का उत्तर दो :- "(१) लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? (२) जीव शाश्वत है या प्रशाश्वत?"
जमालि इन प्रश्नों का कुछ भी उत्तर नहीं दे सका और शंका, कांक्षा से मन में विचलित हो गया।'
- भगवान् महावीर ने जमालि को सम्बोधित कर कहा-"जमालि ! मेरे बहुत से अन्तेवासी छपस्थ हो कर भी इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं, फिर भी वे अपने को तुम्हारी तरह केवली नहीं कहते ।" बाद में गौतम ने जमालि को लोक का शाश्वतपन और प्रशाश्वतपन किस अपेक्षा से है, विस्तार से समझाया। बहत सम्भव है, जमालि का यह 'बहुरत' सम्प्रदाय उसके पश्चात नहीं रहा हो क्योंकि उसके अनुयायी उसकी विद्यमानता में ही साथ छोड़ कर चले गये थे। प्रतः अपने मत को मानने वाला वह अकेला ही रह गया था।
१ भग०, श० ६, उ ३३ । २ इच्छामो संवोहणमजो, पियदसणादमो उकं । वोत्तुंजमालिमेक्क, मोत्तूरण गया जिणसगासं ॥ वि. २३३२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org