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७१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[जमालि लगे और जो भगवद्वाणी पर श्रद्धाशील थे, उन्होंने युक्तिपूर्वक जमालि को समझाने का प्रयत्न किया, पर जब यह बात उसकी समझ में नहीं पाई तो वे उसे छोड़कर पुनः भगवान् महावीर की शरण में चले गये। - जमालि की अस्वस्थता की बात सुनकर साध्वी प्रियदर्शना भी वहाँ पाई। वह भगवान् महावीर के परमभक्त ढंक कुम्हार के यहाँ ठहरी हुई थी। जमालि के अनुराग से प्रियदर्शना ने भी उसका नवीन मत स्वीकार कर लिया और ढंक को भी स्वमतानुरागी बनाने के लिये समझाने लगी। ढंक ने प्रियदर्शना को मिथ्यात्व के उदय से प्राकान्त जान कर कहा-"आर्ये ! हम सिद्धान्त की बात नहीं जानते, हम तो केवल अपने कर्भ-सिद्धान्त को समझते हैं और यह जानते हैं कि भगवान वीतराग ने जो कहा है, वह मिथ्या नहीं हो सकता।" उसने प्रियदर्शना को उसकी भूल समझाने का मन में पक्का निश्चय किया।
एक दिन प्रियदर्शना साध्वी ढंक की शाला में जब स्वाध्यायमग्न थी, ढंक ने अवसर देखकर उसके वस्त्रांचल पर एक अंगार का कण डाल दिया। शामांचल जलने से साध्वी बोल उठी-"श्रावक! तुमने मेरी साड़ी जला दी।" उसने कहा-"महाराजसाड़ी तो अभी आपके शरीर पर है, जली कहाँ है ? साड़ी का कोण जलने से यदि उसका जलना कहती हैं तो ठीक नहीं। आपके मन्तव्यानुसार तो दह्यमान वस्तु अदग्ध कही गई है। अतः कोण के जलने से साड़ी को जली कहना आपकी परम्परानुसार मिथ्या है। ऐसी बात तो भगवान महावीर के अनुयायी कहें तो ठीक हो सकती है । जमालि के मत से ऐसी बात ठीक नहीं होती।" ढंक की युक्तिपूर्ण बातें सुन कर साध्वी प्रियदर्शना प्रतिबुद्ध हो गई। ... प्रियदर्शना ने अपनी भूल के लिये "मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु" कहकर प्रायश्चित्त किया और जमालि को समझाने का प्रयत्न किया तथा जमालि के न मानने पर वह अपनी शिष्याओं के संग भगवान के पास चली गई। शेष साधु भी धीरे-धीरे जमालि को अकेला छोड़कर प्रभु की सेवा में चले गये । अन्तिम समय तक भी जमालि अपने दुराग्रह पर डटा रहा ।'
जमालि का मन्तव्य था कि कोई भी कार्य लंबे समय तक चलने के बाद · ही पूर्ण होता है, अतः किसी भी कार्य को 'क्रियाकाल' में किया कहना ठीक
नहीं है । भगवान् महावीर का 'करेमाणे कडे' वाला सिद्धान्त 'ऋजुसूत्र' नय की दृष्टि से है। ऋजुसूत्र-नय केवल वर्तमान को ही मानता है। इसमें किसी भी कार्य का वर्तमान ही साधक माना गया है। इस विचार से कोई भी क्रिया अपने वर्तमान समय में कार्यकारी हो कर दूसरे समय में नष्ट हो जाती है ।
१ विशेष गा० २३०७, पृ० ६३४ से ६३६ ।
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