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वैशाली पर प्राक्रमरण ]
भगवान् महावीर
कूरिक के सेनापति के देहावसान के साथ ही दिवस का भी अवसान हो गया, मानो काल कुमार की अकाल मृत्यु से अवसन्न हो अंशुमाली अस्ताचल की प्रोट में हो गए। उस दिन का युद्ध समाप्त हुआ । कूरिणक की सेनाएँ शोकसागर में डूबी हुई और वैशाली की सेनायें हर्ष सागर में हिलोरें लेती हुई अपनेअपने शिविरों की ओर लौट गई ।
काल कुमार की मृत्यु के पश्चात् उसके महाकाल प्रादि शेष भाई भी प्रतिदिन एक के बाद एक क्रमश: कूरिणक द्वारा सेनापति पद पर अभिषिक्त किये जाकर वैशाली गणराज्य की सेना से युद्ध करने के लिए रग क्षेत्र में जाते रहे और महाराज चेटक द्वारा & ही भाई प्रतिदिन एक एक शर के प्रहार से 8 दिनों में यमधाम पहुँचा दिये गए ।
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इन दिनों में ही अपने दुर्द्धर्ष योद्धा दस भाइयों और सेना का संहार देख कर कूरिणक की जयाशा निराशा में परिणत होने लगी । वह अगाध शोक सागर में निमग्न हो गया । अन्त में उसने दैवीशक्ति का सहारा लेने का निश्चय किया । उसने दो दिन उपोषित रह कर शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र का चिन्तन किया । पूर्वजन्म की मैत्री और तप के प्रभाव से दोनों इन्द्र कूरिणक के समक्ष उपस्थित हुए । उन्होंने उससे उन्हें याद करने का कारण पूछा ।
कूणिक ने आशान्वित हो कहा--"यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर चेटक को मौत के घाट उतार दीजिए । क्योंकि मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि या तो वैशाली को पूर्णतः विनष्ट करके वैशाली की भूमि पर गधों से हल चलवाऊँगा, अन्यथा उत्तुंग शैलशिखर से गिर कर प्राणान्त कर लूंगा । इस चेटक ने अपने अमोघ बाणों से मेरे दस भाइयों को मार डाला है ।"
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देवराज शक्र ने कहा- "प्रभु महावीर के परम भक्त श्रावक और मेरे स्वधर्मी बन्धु चेटक को मैं मार तो नहीं सकता पर उसके अमोघ बाण से तुम्हारी रक्षा प्रवश्य करूंगा ।"
यह कह कर कूरिणक के साथ अपने पूर्वभव की मित्रता का निर्वाह करते हुए. शक ने कूरिक को वज्रोपम एक अभेद्य कवच दिया ।
चमरेन्द्र पूरण तापस के अपने पूर्वभव में कूरिणक के पूर्वभवीय तापसजीवन का साथी था । उस प्रगाढ़ मैत्री के वशीभूत चमरेन्द्र ने कूरिक को 'महाशिला कंटक' नामक एक भीषण प्रक्षेपणास्त्र और 'रथमूसल' नामक एक प्रलयंकर अस्त्र ( आधुनिक वैज्ञानिक युग के उत्कृष्ट कोटि के टैंकों से भी कहीं afre शक्तिशाली युद्धोपकरण) बनाने व उनके प्रयोग की विधि बताई ।
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