________________
६६६
इन्द्रभूति]
भगवान् महावीर शिष्यों के साथ सोलह वर्ष की अवस्था में भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार किया। आठ वर्ष बाद चौबीस वर्ष की अवस्था में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और सोलह वर्ष तक केवली-पर्याय में रहकर चालीस वर्ष की वय में गुणशील चैत्य में एक मास का अनशन कर इन्होंने भगवान् के जीवनकाल में ही निर्वाण प्राप्त किया। सबसे छोटी आयु में दीक्षित होकर केवलज्ञान प्राप्त करने वाले ये ही एक गणधर हैं ।
ये सभी गणधर जाति से ब्राह्मण और वेदान्त के पारगामी पण्डित थे व इन सबका संहनन वव ऋषभ नाराच तथा समचतुरस्र संस्थान था। दीक्षित होकर सबने द्वादशांग का ज्ञान प्राप्त किया, अतः सब चतुर्दश पूर्वधारी एवं विशिष्ट लब्धियों के धारक थे।'
दिगम्बर परम्परा में गौतम प्रादि का परिचय दिगम्बर परम्परा के मंडलाचार्य धर्मचन्द्र ने अपने ग्रन्थ “गौतम चरित्र" में प्रभु महावीर के प्रथम तीन गणधरों का परिचय दिया है, जिसका सारांश इस प्रकार है :
इन्द्रभूति मगध प्रदेश के ब्राह्मणनगर ग्राम में शाण्डिल्य नामक एक विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण रहता था। शाण्डिल्य के स्थंडिला और केसरी नाम की दो धर्मपत्नियाँ थीं, जो रूप-लावण्य-गुणसम्पन्ना एवं पतिपरायणाएं थीं।
__ एक समय रात्रि के अन्तिम प्रहर में सुखप्रसुप्ता स्थण्डिला ने शुभ स्वप्न देखे और पंचम देवलोक का एक देव देवाय पूर्ण कर उसके गर्भ में पाया । गर्भकाल पूर्ण होने पर माता स्थण्डिला ने एक अति सौम्य एवं प्रियदर्शी पुत्र को जन्म दिया। बालक महान् पुण्यशाली था, उसके जन्म के समय सुखद, शीतल, मन्द-मन्द सुगन्धित पवन प्रवाहित हुआ, दिशाएँ निर्मल एवं प्रकाशपूर्ण हो गई और दिव्य जयघोषों से गगन गुजरित हो उठा। विद्वान् ब्राह्मण शाण्डिल्य ने पुत्र-जन्म के उपलक्ष्य में बड़े हर्षोल्लास के साथ मुक्तहस्त हो याचकों को यथेप्सित दान दिया। नवजात शिशु की जन्म-कुण्डली देख भविष्यवाणी की कि यह बालक आगे चल कर चौदह विद्यानों का निधान एवं सकल शास्त्रों का पारगामी विद्वान् बनेगा और निखिल महीमण्डल में इसका यश प्रसृत होगा । मातापिता ने उस बालक का नाम इन्द्रभूति रखा।
प्रग्निभूति कुछ समय पश्चात् पंचम स्वर्ग का एक और देव अपनी देवायु पूर्ण होने १ प्राव. नि., गाथा ६५८-६६०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org