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________________ ५३६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पूर्वभव की होकर अवतार लेता है। जैन शास्त्रों के अनसार प्रत्येक प्रात्मा परमात्मा बनने की योग्यता रखती है और विशिष्ट क्रिया के माध्यम से उसका तीर्थकर या भगवान् रूप से उत्तर-जन्म होता है। किन्तु ईश्वर कर्ममुक्त होने के कारण पुनः मानव रूप में अवतार-जन्म नहीं लेते। हाँ, स्वर्गीय देव मानवरूप में अवतार ले सकते हैं। मानव सत्कर्म से भगवान् हो सकता है। इस प्रकार नर का नारायण होना अर्थात् ऊपर चढना यह उत्तार है । अतः जैन धर्म अवतारवादी नहीं उत्तारवादी है। भगवान महावीर के जीव ने नयसार के भव में सत्कर्म का बीज डाल कर क्रमशः सिंचन करते हुए तीर्थकर-पद की प्राप्ति की, जो इस प्रकार है किसी समय प्रतिष्ठानपुर का ग्रामचिन्तक नयसार, राजा के आदेश से वन में लकड़ियों के लिये गया हुआ था । एकदा मध्याह्न में वह खाने बैठा ही था कि उसी समय वन में मार्गच्यत कोई तपस्वी मनि उसे दष्टिगोचर हए। उसने भूख-प्यास से पीड़ित उन मुनि को भक्तिपूर्वक निर्दोष आहार-प्रदान किया और उन्हें गाँव का सही मार्ग बतलाया। मुनि ने भी नयसार को उपदेश देकर आत्म-कल्याण का मार्ग समझाया। फलस्वरूप उसने वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त कर भव-भ्रमण को परिमित कर लिया। दूसरे भव में वह सौधर्म कल्प में देव हुआ और तीसरे भव में भरत-पुत्र मरीचि के रूप में उत्पन्न हुआ। चौथे भव में ब्रह्मलोक में देव, पाँचवें भव में कौशिक ब्राह्मण, छठे भव में पुष्यमित्र ब्राह्मण, सातवें भव में सौधर्म देव, आठवें भव में अग्निद्योत, नवें भव में द्वितीय कल्प का देव, दशवें भव में अग्निभूति ब्राह्मण, ग्यारहवें भव में सनत्कुमार देव, बारहवें भव में भारद्वाज, तेरहवें भव में महेन्द्रकल्प का देव, चौदहवें भव में स्थावर ब्राह्मण, पन्द्रहवें भव में ब्रह्मकल्प का देव और सोलहवें भव में युवराज विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति हुआ। संसार की कपट-लीला देखकर उन्हें विरक्ति हो गई। मुनि बनकर उन्होंने घोर तपस्या की और अन्त में अपरिमित बलशाली बनने का निदान कर काल किया। सत्रहवां भव महाशुक्र देव का कर इन्होंने अठारहवें भव में त्रिपृष्ठ । वासुदेव के रूप से जन्म ग्रहण किया। --एक दिन त्रिपृष्ठ वासुदेव के पिता प्रजापति के पास प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव का सन्देश आया कि शाली-क्षेत्र पर शेर के उपद्रव से कृषकों की रक्षा करने के लिये उनको वहाँ जाना है। महाराज प्रजापति कृषकों की रक्षा के लिये प्रस्थान कर ही रहे थे कि राजकुमार त्रिपृष्ठ ने आकर कहा-"पिताजी! हम लोगों के रहते आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं। उस अकिंचन शेर के लिये तो हम बच्चे ही पर्याप्त हैं।" इस तरह त्रिपष्ठ कूमार राजा की आज्ञा लेकर उपद्रव के स्थान पर पहुंचे और खेत के रखवालों से बोले-"भाई ! यहाँ कैसे प्रौर कब तक रहना है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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