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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [पायन द्वारा प्रभु चरणों में दीक्षा ग्रहण की। श्रीकृष्ण ने शासन और धर्म की प्रत्युत्कृष्ट भावना से सेवा की और इस तरह उन्होंने तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया ।
इस प्रकार अनेक भव्य प्राणियों को मुक्तिपथ का पथिक बना प्रभु अरिष्टनेमि वहां से अन्य स्थान के लिए विहार कर गये।
उधर द्वैपायन निदानपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर अग्निकुमार देव हमा और अपने वैर का स्मरण कर वह क्रुद्ध हो द्वारिका को भस्मसात् कर डालने की इच्छा से द्वारिका पहुँचा । पर उस समय सारी द्वारिका तपोभूमि बनी हुई थी। समस्त द्वारिकावासी प्रात्म-चिन्तन, धर्माराधन और प्रसिद्ध प्रायम्बिल (प्राचाम्ल) तप की साधना में निरत थे, अनेक नागरिक चतुर्थ भक्त, षष्टम भक्त और अष्टम भक्त किये हुए थे, अतः धर्म के प्रभाव से अभिभूत हो वह द्वारिकावासियों का कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सका और हताश हो लौट गया। द्वारिका को जलाने के लिए वह सदा छिद्रान्वेषण और उपयुक्त अवसर की टोह में रहने लगा।
द्वैपायन द्वारा द्वारिकादाह इस प्रकार द्वैपायन निरन्तर ग्यारह वर्ष तक द्वारिका को दग्ध करने का अवसर देखता रहा, पर द्वारिकावासियों की निरन्तर धर्माराधना के कारण ऐसा अवसर नहीं मिला।
___ इधर द्वारिकावासियों के मन में यह धारणा बलवती होती गई कि उनके निरन्तर धर्माराधन और कठोर तपस्या के प्रभाव से उन्होंने द्वैपायन के प्रभाव को नष्ट कर उसे जीत लिया है, अतः अब काय-क्लेश की प्रावश्यकता नहीं है।
इस विचार के आते ही कुछ लोग स्वेच्छापूर्वक सुरा, मांसादिक का सेवन करने लगे। "गतानगतिको लोकः" इस उक्ति के अनसार अंनेक द्वारिकावासी धर्माराधन एवं तप-साधना के पथ का परित्याग कर अनर्थकर-पथ में प्रवृत्त होने लगे।
द्वंपायन के जीव अग्निकुमार ने तत्काल यह रन्ध्र देख द्वारिका पर प्रलय ढाना प्रारम्भ कर दिया। अग्नि की भीषण वर्षा से द्वारिका में सर्वत्र प्रचण्ड ज्वालाएँ भभक उठीं । अशनिपात एवं उल्कापात से धरती धूजने लगी । द्वारिका के प्राकार, द्वार और भव्य-भवन भूलुण्ठित होने लगे। कृष्ण और बलराम के चक्र व हल आदि सभी रत्न विनष्ट हो गये । समस्त द्वारिका देखते ही देखते ज्वाला का सागर बन गई। रमणियों, किशोरों, बच्चों और वृद्धों के करुणक्रन्दन से प्राकाश फटने लगा। बड़े अनुराग और प्रेम से पोषित किये गये
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