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________________ प्रभु द्वारा प्राश्वासन ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि उनकी अन्तर्व्यथा प्रसह्य हो उठी, उनके हृदयपटल पर संसार की नश्वरता का, जीवन, राज्यलक्ष्मी एवं ऐश्वर्य की क्षणभंगुरता का अमिट चित्र अंकित हो गया। वे सोचने लगे-- "धन्य हैं महाराज समुद्रविजय, धन्य हैं जालि मालि, प्रद्युम्न, शाम्ब, रुक्मिणी, जाम्बवती आदि, जिन्होंने भोगों एवं भवनादि की भंगुरता के तथ्य को समझ कर त्याग मार्ग अपना लिया । उन्हें अब द्वारिकादाह का ज्वाला - प्रलय नहीं देखना पड़ेगा । प्रोफ् ! मैं अभी तक त्रिखण्ड के विशाल साम्राज्य और ऐश्वर्य में मूच्छित हूँ ।" अन्तर्यामी भगवान् श्ररिष्टनेमि से श्रीकृष्ण की अन्तर्वेदना छुपी न रही । उन्होंने कहा - "त्रिखण्डाधिप वासुदेव ! निदान की लोहार्गला के कारण त्रिकाल में भी यह संभव नहीं कि कोई भी वासुदेव प्रव्रज्या ग्रहण करे । निदान. का यही अटल नियम है, अतः तुम प्रव्रज्या ग्रहण न कर सकने की व्यर्थ चिन्ता न करो । प्रागामी उत्सर्पिणीकाल में इसी भरत क्षेत्र में तुम भी मेरी तरह बारहवें तीर्थंकर बनोगे' मोर बलराम भी तुम्हारे उस तीर्थकाल में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे ।" ४११ भगवान् के इन परम प्राह्लादकारी वचनों को सुन कर श्रीकृष्ण मानन्द विभोर हो पुलकित हो उठे । बड़ी ही श्रद्धा से उन्होंने प्रभु को वन्दन किया और द्वारिका लौट आये । उन्होंने पुन: द्वारिका में घोषरणा करवाई - " द्वारिका का दाह अवश्यंभावी है, अतः जो भी व्यक्ति प्रभु चरणों में प्रव्रजित हो मुनि-धर्म स्वीकार करना चाहता है, वह अपने प्राश्रितों के निर्वाह, सेवा-शुश्रूषा प्रादि की सब प्रकार की चिन्ताओं का परित्याग कर बड़ी खुशी के साथ प्रव्रज्या ग्रहणं कर सकता है। मुनि-धर्म स्वीकार करने की इच्छा रखने वालों को मेरी ओर से पूर्णरूपेण अनुमति है । उनके प्राश्रितों के भरण-पोषण आदि का सारा भार मैं अपने कंधों पर लेता हूं।" उन्होंने द्वारिकावासियों को निरन्तर धर्म की भाराधना करते रहने की सलाह दी । श्रीकृष्ण की इस घोषणा से पद्मावती श्रादि अनेक राज्य परिवार की महिलाओं, कई राजकुमारों और अन्य अनेकों स्त्री-पुरुषों ने प्रबुद्ध एवं विरक्त हो २ (क) एएसिणं चब्बीसाए तित्थकराणं पुब्वभविया चउव्वीस नामघेज्जा भविस्संति तं हा सेरिगए सुपास" [ समवायांग सूत्र, सूत्र २१४ ] (ख) च्युत्वा भाब्यत्र भरते गंगाद्वार पुरेशितुः । जितशत्रोः सुतोऽहंस्त्वं द्वादशो नामतोऽममः । ! [ त्रिषष्टि श. पु. चरित्र, पर्व ८ सर्ग ११, श्लो. ५२] (ग) अरहा मरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं बयासी मा गं तुमं देवारणुप्पिया श्रोह्य-जाव "तुमं" वारसमे श्रममे नाम रहा भविस्ससि झियाहि" [ अंतगड दशा | Jain Education International ******** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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