________________
४१४
जैन धर्म का मौलिक इतिहास
स्नेह, सौहार्द और सम्मान के साथ रखेंगे ।'
कृष्ण ने भी "अच्छा" कहते हुए अपने बड़े भाई के प्रस्ताव से सहमति प्रकट की और दोनों भाइयों ने दक्षिणापथ की ओर प्रयाण किया ।
[ बलदेव की विरक्ति और
शत्रु राजाओं से संघर्षों और मार्ग की अनेक कठिनाइयों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए कई दिनों बाद दोनों भाई अत्यन्त दुर्गम कौशाम्बी वन में जा पहुँचे । वहां पिपासाकुल हो कृष्ण ने अपने ज्येष्ठ भाई बलदेव से कहा - "आर्य! मैं प्यास से इतना व्याकुल हूँ कि इस समय एक डग भी आगे बढ़ना मेरे लिए असंभव है । कहीं से ठंडा जल लाकर पिलानो तो अच्छा है ।"
बलदेव तत्क्षरण कृष्ण को एक वृक्ष की छाया में बैठाकर पानी लाने के लिए चल पड़े ।
बलदेव की विरक्ति और कठोर संयम - साधना
पिपासाकुल कृष्ण पीताम्बर प्रोढ़े बांये घुटने पर दाहिना पैर रखे छाया में लेटे हुए थे । उसी समय शिकार की टोह में जराकुमार उधर से निकला और पीताम्बर प्रोढ़े लेटे हुए कृष्ण पर हरिण के भ्रम में बारण चला दिया ।" बारण कृष्ण के दाहिने पादतल में लगा । कृष्ण ने ललकारते हुए कहा - "सोते हुए मुझ पर इस तरह तीर का प्रहार करने वाला कौन है ? मेरे सामने आये ।"
कृष्ण के कण्ठ-स्वर को पहचान कर जराकुमार तत्क्षण कृष्ण के पास आया और उसने रोते हुए कहा--- " मैं तुम्हारा हतभाग्य बड़ा भाई जराकुमार हूं। तुम्हारे प्राणों की रक्षा हेतु बनवासी होकर भी दुर्देव से मैं तुम्हारे प्राणों का ग्राहक बन गया ।"
कृष्ण ने संक्षेप में द्वारिकादाह, यादव -कुल- विनाश आदि का वृत्तान्त सुनाते हुए जराकुमार को अपनी कौस्तुभमरिण दी और कहा - " हमारे यादवकुल में केवल तुम्हीं बचे हो, अतः पाण्डवों को यह मरिण दिखाकर तुम उनके पास ही रहना । शोक त्याग कर शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ, बलराम आने ही वाले हैं। उन्होंने यदि तुम्हें देख लिया तो तत्क्षण मार डालेंगे ।"
Jain Education International
१ श्रीमद्भागवत में जरा नामक व्याध द्वारा श्रीकृष्ण के पादतल में बारण का प्रहार करने का उल्लेख है :
मुसलावशेषायः खण्ड कृतेषुलु ब्धको जरा ।
मृगास्याकारं तच्चरणं, विव्याध मृगशंकया ||३३||
[ श्रीमद्भागवत, स्कंध ११, प्र० ३० ]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org