________________
७६४
जैन धर्म का मौलिक इतिहास [रा० के प्रांगण में अभय कु० उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-“वीतभय का राजा उदयन, जो मेरे पास दीक्षित मुनि है, वही अन्तिम मोक्षगामी राजा है।" ।
अभयकुमार ने सोचा-"मैं यदि राजा बन कर दीक्षा ग्रहण करूंगा तो मेरे लिए मोक्ष का रास्ता ही बन्द हो जायगा । अतः क्यों न मैं कुमारावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर लू।"
अभयकुमार वैराग्य-भावना से श्रेणिक के पास आया और अपनी दीक्षा की बात कही। श्रेणिक ने कहा-"वत्स ! दीक्षा ग्रहण का दिन तो मेरा है, तुम्हें तो अभी राज्य-ग्रहण करना चाहिए। अभयकुमार द्वारा विशेष आग्रह किये जाने पर श्रेणिक ने कहा-"जिस दिन मैं तुमको रुष्ट हो कर कहूँ- 'जा मुझे आकर मह नहीं दिखाना, उसी दिन तुम प्रवजित हो जाना।"
कालान्तर में फिर भगवान् महावीर राजगृह पधारे । उस समय भीषण शीतकाल था। एक दिन राजा श्रेणिक रानी चेलना के साथ घूमने गये। सायंकाल उपवन से लौटते हुए उन्होंने नदी के किनारे एक मुनि को ध्यानस्थ देखा । रात्रि के समय रानी जगी तो उसे मुनि की याद हो पाई । सहसा उसके मुंह से निकला-“आह ! वे क्या करते होंगे ?" रानी के वचन सुन कर राजा के मन में उसके प्रति अविश्वास हो गया। प्रातःकाल भगवद्-वन्दन को जाते हुए उन्होंने अभयकुमार को आदेश दिया-"चेलना का महल जला दो, यहाँ दुराचार बढ़ता है।"
अभयकुमार ने महल से रानियों को निकाल कर उसमें आग लगवा दी।
उधर श्रेणिक ने भगवान् के पास रानियों के प्राचार-विषयक जिज्ञासा रखी तो महावीर ने कहा-"राजन् ! तेरी चेलना आदि सारी रानियाँ निष्पाप हैं, शीलवती हैं।" भगवान् के मुख से रानियों के प्रति कहे गये वचन सुन कर राजा अपने आदेश पर पछताने लगा । वह इस आशंका से कि कहीं कोई हानि न हो जाय, सहसा महल की ओर लौट चला।
मार्ग में ही अभयकुमार मिल गया। राजा ने पूछा-"महल का क्या किया ?"
अभय ने कहा-"प्रापके आदेशानुसार उसे जला दिया।"
"अरे मेरे आदेश के बावजूद भी तुम्हें अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिये था," खिन्न-हृदय से राजा बोला।
यह सुन कर अभय बोला-"राजाज्ञा-भंग का दण्ड प्राण-नाश होता है, मैं इसे अच्छी तरह जानता हूँ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org