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राजगृही के प्रांगण में अभय कुमार] भगवान् महावीर
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"फिर भी तुम्हें कुछ रुक कर, समय टाल कर आदेश का पालन करना चाहिये था," व्यथित मन से राजा ने कहा ।
इस पर अभय ने जवाब दिया--"इस तरह बिना सोचे समझे आदेश ही नहीं देना चाहिये । मैंने तो अपने से बड़ों की आज्ञा के पालन को ही अपना धर्म समझा है और आज तक उसी के अनुकूल प्राचरण भी किया है।"
अभय के इस उत्तर-प्रत्युत्तर एवं अपने द्वारा दिये गये दुष्टादेश से राजा अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा । दूसरा होता तो राजा तत्क्षरण उसके सिर को धड़ से अलम कर देता किन्तु पुत्र के ममत्व से वह ऐसा नहीं कर सका । फिर भी उसके मुख से सहसा निकल पड़ा- "जारे अभय ! यहाँ से चला जा । भूल कर भी कभी मुझे अपना मुह मत दिखाना।"
अभय तो ऐसा चाहता ही था। अंधा जैसे आँख पाकर गद्गद् हो जाता है, अभय भी उसी तरह परम प्रसन्न हो उठा । वह पित-वचन को शिरोधार्य कर तत्काल वहाँ से चल पड़ा और भगवान के चरणों में जाकर उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
राजा श्रेणिक ने जब महल एवं उसके भीतर रहने वालों को सुरक्षित पाया तो उसको फिर एक बार अपने सहसा दिये गये आदेश पर दुःख हुआ। उसे यह समझने में किंचित् भी देर नहीं लगी कि आज के इस आदेश से मैंने अभय जैसे चतुर पुत्र एवं राज्य-कार्य में योग्य व नीतिज्ञ मंत्री को खो दिया है । वह प्राशा के बल पर शीघ्रता से लौट कर पुन: महावीर के पास आया। वहाँ उसने देखा कि अभयकुमार तो दीक्षित हो गया है । अब पछताने के सिवा और क्या होता? अभयकुमार मुनि विशुद्ध मुनिधर्म का पालन कर विजय नामक अनत्तर विमान में अहमिन्द्र बने ।'
ऐतिहासिक दृष्टि से निर्वाणकान जैन परम्परा के प्रायः प्राचीन एवं अर्वाचीन सभी प्रकार के ग्रन्थों में इस प्रकार के पुष्ट और प्रबल प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जिनके आधार पर पूर्ण प्रामाणिकता के साथ यह माना जाता है कि भगवान् महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२७वें वर्ष में हुमा।
माधुनिक ऐतिहासिक शोधकर्ता विद्वानों ने भी इस विषय में विभिन्न दृष्टियों से गहन गवेषणाएं करने का प्रयास किया है। उन विद्वानों में सर्वप्रथम डॉ० हर्मन जैकोबी ने जैन सूत्रों की भूमिका में इस विषय पर चर्चा की है। १ अनुत्तरोपपातिक........
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