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जैन धर्म का मौलिक इतिहास प्राचीन इतिहास की अपने अन्धे कर दिये जाने की बात से प्रतिपल उसकी क्रोधाग्नि उग्ररूप धारण करती गई । उसने अपने मंत्री को आदेश दिया कि अगणित ब्राह्मणों की अांखें निकलवा कर बडे थाल में उसके सम्मुख रख दी जाय । मंत्री ने प्रांखों के समान श्लेष्मपूज चिकने लेसवा-लसोड़ा (गूदे) के गठली निकले फलों से बड़ा थाल भर कर अन्धे ब्रह्मदत्त के सम्मुख रखवा दिया। गूदों को ब्राह्मणों की आँखें समझ कर ब्रह्मदत्त अतिशय आनन्दानुभव करते हुए कहता-"ब्राह्मणों की आँखों से थाल को बहुत अच्छी तरह भरा गया है।"
वह एक क्षण के लिए भी उस थाल को अपने पास से नहीं हटाता । रात दिन बार-बार उसका स्पर्श कर परम संतोष का अनुभव करता।
इस प्रकार ब्रह्मदत्त ने अपनी प्रायु के अन्तिम सोलह वर्ष निरन्तर प्रति तीव्र प्रार्त और रौद्र ध्यान में बिताये एवं सात सौ वर्ष की प्राय पूर्ण होने पर अपनी पट्टमहिषी कुरुमती के नाम का बार-बार उच्चारण करता हुआ मर कर सातवें नर्क में चला गया।
प्राचीन इतिहास की एक भग्न कड़ी बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का जैन आगमों और गन्थों से कतिपय अंशों में मिलता-जुलता वर्णन वेदव्यास रचित महाभारत पुराण और हरिवंश पुराण में भी उपलब्ध होता है।
ब्रह्मदत्त के जीवन की कतिपय घटनाएँ जिनके सम्बन्ध में जैन और वैदिक परम्परात्रों के साहित्य में समान मान्यता है, उन्हें तुलनात्मक विवेचन हेतु यहाँ दिया जा रहा है।
(१) ब्रह्मदत्त पांचाल जनपद के काम्पिल्यनगर में निवास करता था। वैदिक परम्परा :-काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्य, त्वन्तःपुरनिवासिनी।
(महाभारत, शा० ५०, अ० १३६, श्लो० ५) १ मंतिणा वि मुणिकरण तस्स कम्मवसत्तणमो तिव्वमझवसायविसेसं घेत्तूण लेसुरुडयतरुणो
बहवे फलठ्ठिया पक्खिविऊण थालम्भि णिवेइया पुरो । २ (क) यातेषु जन्मदिवसोऽथ समा शतेषु, सप्तस्वसो कुरुमतीत्यसकृदन वाणः । हिंसानुबन्धिपरिणामफलानुरूपां, तो सप्तमी नरकलोकभुवं जगाम ।।
[त्रिषष्टि श. पु. चरित्र, पर्व ६, सर्ग १, श्लो, ६००] (ख) 'चउवन्न महापुरिस चरियं' में ब्रह्मदत्त की ७१६ वर्ष की आयु बताई गई है। यथा-""प्रइक्कंताई कइवयदिणाणि सतवाससयाई सोलसुत्तराई।
[चउवन्न महापुरिस परियं, पृष्ठ २४४]
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