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साधना का पंचम वर्ष]
भगवान् महावीर
ही इसकी सूचना कर दी थी । जब गोशालक ने इसे झठलाने का प्रयत्न किया तो सिद्धार्थ ने कहा-वमन कर । वमन करने पर असलियत प्रकट हो गई। पर इस घटना का ऐसा प्रभाव पड़ा कि गोशालक पक्का नियतिवादी हो गया।
सावत्थी से विहार कर प्रभु 'हलेदुग' पधारे । गांव के पास ही 'हलेदुग' नाम का एक विशाल वृक्ष था। भगवान् ने उस स्थान को ध्यान के लिए उपयुक्त समझा और वहीं रात्रि-विश्राम किया। दूसरे अनेक पथिक भी रात्रि में वहाँ विश्राम करने को ठहरे हुए थे। उन्होंने सर्दी से बचने के लिए रात में प्राग जलाई और प्रातःकाल बिना प्राग बुझाये ही वे लोग चले गये । इधर सूखे घास के संयोग से हवा का जोर पा कर अग्नि की लपटें जलती हुई महावीर के निकट आ पहुँची और उनके पैर आग की लपटों से झुलस गये फिर भी ध्यान से चलायमान नहीं हुए।
मध्याह्न में ध्यान पूर्ण होने पर भगवान महावीर ने आगे प्रयाण किया और 'नांगला' होते हुए 'आवर्त' पधारे । वहाँ बलदेव के मंदिर में ध्यानावस्थित हो गये। भगवान के साथ रहते हुए भी गोशालक अपने चंचल स्वभाव के कारण लोगों के बच्चों को डराता और चौकाता था जिसके कारण वह अनेक बार पीटा गया।
आवर्त से विहार कर प्रभु अनेक क्षेत्रों को अपनी चरणरज से पवित्र करते हुए 'चौराक सन्निवेश' पधारे । वहाँ भी गुप्तचर समझ कर लोगों ने गोशालक को पीटा । गोशालक ने रुष्ट होकर कहा- “अकारण यहाँ के लोगों ने मुझे पीटा है, अतः मेरे धर्माचार्य के तपस्तेज का प्रभाव हो तो यह मंडप जल जाय" और संयोगवश मंडप जल गया।
उसके इस उपद्रवी स्वभाव से भगवान् विहार कर 'कलंबुका' पंधारे । वहाँ निकटस्थ पर्वतीय प्रदेश के स्वामी 'मेघ' और 'कालहस्ती' नाम के दो भाइयों में से कालहस्ती की महावीर से मार्ग में भेंट हुई । 'कालहस्ती' ने उनसे पूछा-- "तुम कौन हो?" महावीर ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। इस पर कालहस्ती ने उन्हें पकड़ कर खूब पीटा, फिर भी महावीर नहीं बोले ।
कालहस्ती ने इस पर महावीर को अपने बड़े भाई मेघ के पास भिजवाया। मेघ ने महावीर को एक बार पहले गृहस्थाश्रम में कुडग्राम में देखा था, अतः देखते ही वह उन्हें पहचान गया। उसने उठ कर प्रभु का सत्कार किया और उन्हें मुक्त ही नहीं किया अपितु अपने भाई द्वारा किये गये अभद्र व्यवहार के लिये क्षमा-याचना भी की। १ माव० चू० पृ० २८८ । २ प्राव० चू०, पृ० २६० ।
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