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________________ भगवान् श्री सुमतिनाथ चौथे तीर्थकर भगवान् अभिनन्दन के पश्चात् नव लाख करोड़ सागर जैसी सुदीर्घावधि के अनन्तर पंचम तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ हुए । भ० सुमतिनाथ का पूर्वभव जम्बूद्वीप के पुष्कलावती विजय में सुसमृद्ध एवं सुखी प्रजाजनों से परिपूर्ण शंखपुर नामक एक परम सुन्दर नगर था। वहां विजयसेन नामक राजा राज्य करता था। महाराजा विजयसेन की पट्ट-राजमहिषी का नाम सुदर्शना था। महादेवी सुलक्षणा एवं अपनी अन्य महारानियों के साथ सभी प्रकार के ऐहिक सुखोपभोग करता हुआ राजा विजयसेन न्यायपूर्वक प्रजा का पालन कर रहा था। एक दिन किसी लीलोत्सव के अवसर पर शंखपुर के सभी वर्गों के नागरिक आमोद-प्रमोद के लिये उद्यान में गये। पालकी पर प्रारूढ़ महारानी सुदर्शना ने उस उद्यान में आठ वधूत्रों से परिवता एक महिला को उत्सव का आनन्द लेते हुए देखा। महारानी ने कंचुकी से पूछा--"यह महिला कौन है, किसकी पत्नी है और इसके साथ ये आठ सुन्दरियां कौन हैं ?" __ कंचकी ने तत्काल उस महिला का पूर्ण परिचय प्राप्त कर निवेदन किया--"महादेवी ! यह महिला इसी नगर के श्रेष्ठी नन्दिषेण की पत्नी है। इमका नाम सुलक्षणा है । इसके दो पुत्र हैं, जिनका चार-चार रूपसी कन्याओं के साथ विवाह किया गया। यह श्रेष्ठि पत्नी सुलक्षणा अपनी उन्हीं आठ पुत्रवधुनों के साथ प्रानन्दमग्न हो सभी भांति के सुखों का उपभोग कर रही है।" यह सुनकर निरपत्या महारानी सुदर्शना के अन्तर्मन में संतति का प्रभाव शूल की भांति खटकने लगा। उसे अपने प्रति बड़ी प्रात्मग्लानि हुई कि वह एक भी संतान की माता न बन सकी। वह मन ही मन अति खिन्न हो सोचने लगी--"उस महिला का जन्म, जीवन, यौवन, धन-वैभव, ऐश्वर्य सभी कुछ निरर्थक है, जिसने सभी प्रकार के सांसारिक सुखों के मारभूत सुतरत्न को जन्म नहीं दिया । उस स्त्री के मानव तन धारण करने और जीवित रहने में कोई सार नहीं, जिसकी गोद को उसका लिधसरित पूत्र सुशोभित नहीं करता। वे माताएं धन्य हैं, जो पुत्र को जन्म देती हैं, उसे स्तन्यपान कराती और हर्षातिरेक से उसके मुख चन्द्र का चुम्बन कर अंक में भर उसे अपने हृदय से लगा लेती हैं। उन पुण्यशालिनी पुत्रवती महिलाओं के लिये स्वर्गसुख तृणवत् तुच्छ है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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