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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[भ० सुमतिनाथ
अपने हृदय के हार पुत्र की तुतलाती हुई मृदु वाणी का अपने कन्धों से पान कर सदा आनन्दविभोर रहती हैं।" इस प्रकार चिन्तन करती हुई महारानी प्रथाह शोकसागर में निमग्न हो गई । वनमहोत्सव उसे परमपीड़ाकारी और श्मशान तुल्य प्रतीत होने लगा । उसने तत्काल कंचुकी को राजप्रासाद की ओर लौटने का आदेश दिया ।
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• राजप्रासाद के अपने कक्ष में प्रविष्ट होते ही महारानी पलंग पर लेट कर दीर्घ निश्वास लेती हुई फूट फूट कर रोने लगी। अपनी स्वामिनी की यह दशा देख दासियां शोकाकुल एवं भयभीत हो गई। एक दासी ने तत्काल महाराज विजयसेन को महारानी की उस प्रदृष्ट पूर्व स्थिति से अवगत कराया ।
महाराज विजयसेन यह सूचना पाते ही महारानी के महल में आये । महारानी के अश्रुपूर्ण लाल लोचनयुगल और मलिन मुख को देखकर राजा ने संवेदना मिश्रित स्नेहपूर्ण स्वर में पूछा - " प्रारणाधिके राजराजेश्वरी ! तुम्हारे इस प्रकार शोकसंतप्त होने का कारण क्या है ? क्या किसी ने तुम्हारी प्रज्ञा का उल्लंघन किया है ? क्या कराल काल का कवल बनने के इच्छुक किसी अभागे ने तुम्हारे लिये कुछ अप्रीतिकर कहा अथवा किया है ? शीघ्र बताओ, मैं तुम्हें क्षण भर के लिये भी शोकातुरावस्था में नहीं देख सकता ।"
महारानी सुदर्शना ने कहा - "आर्यपुत्र ! आपकी छत्रछाया में मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने का कोई साहस नहीं कर सकता । देव ! मैं तो अपने आन्तरिक दुःख से ही उद्विग्न हूं। मुझे अपने इस निरर्थक जीवन से ही ग्लानि हो गई है कि अभी तक मैं एक पुत्र की मां नहीं बन सकी । प्राणनाथ ! प्राप मुझ पर पूर्णतः प्रसन्न हैं तथापि यदि औषधोपचार, विद्या, मन्त्रादि के उपाय करने पर भी मेरे सन्तान नहीं हुई तो मैं अपने इस निरर्थक शरीर का निश्चित रूप से त्याग कर दूंगी।"
महाराज विजयसेन ने महारानी सुदर्शना को मधुर वचनों से प्राश्वस्त करते हुए कहा कि वे सब प्रकार के उचित औषधोपचारादि विविध उपायों के करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखेंगे, जिनसे कि महारानी का मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण हो ।
एक दिन महाराज विजयसेन ने बेले की तपस्या कर कुलदेवी की प्राराधना की । तप और निष्ठापूर्ण आराधना के प्रताप से कुलदेवी ने राजा विजयसेन को स्वप्न में दर्शन दे कहा- "नरेन्द्र उद्विग्न होने की आवश्यकता नहीं । शीघ्र ही तुम्हें एक महाप्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी ।" महाराज विजयसेन आश्वस्त हुए। अपने पति से यह सुसंवाद सुनकर महारानी सुदर्शना बड़ी ही प्रमुदित हुई । उसके हर्ष का पारावार न रहा ।
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