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का वर्णन ]
भगवान् महावीर
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समस्त सुखद-सुन्दर वस्तुनों और शारीरिक शक्ति एवं स्थिति का क्रमशः हास ही ह्रास होता चला जायगा । असमय में वर्षा होगी, समय पर वर्षा नहीं होगी । इस प्रकार के ह्रासोन्मुख, क्षीणपुण्य वाले कालप्रवाह में जिन मनुष्यों की रुचि धर्म में रहेगी, उन्हीं का जीवन सफल होगा ।"
भगवान् ने फिर फरमाया - " इस दुषमा नामक पंचम आरे के अन्त में दुःप्रसह प्राचार्य, फल्गुश्री साध्वी, नागिल श्रावक और सत्यश्री श्राविका इन चारों का चतुविध संघ शेष रहेगा । इस भारतवर्ष का अन्तिम राजा विमल वाहन और अन्तिम मंत्री सुमुख होगा ।"
"इस प्रकार पंचम आरे के अन्त में मनुष्य का शरीर दो हाथ की ऊंचाई वाला होगा और मानव की अधिकतम आयु बीस वर्ष की होगी । दुःप्रसह प्राचार्य, फल्गुश्री साध्वी, नागिल श्रावक और सत्यश्री श्राविका के समय में बड़े से बड़ा तप बेला ( षष्ठभक्त) होगा । उस समय में दशवैकालिक सूत्र को जानने वाला चतुर्दश पूर्वधर के समान ज्ञानवान् समझा जायगा । श्राचार्य दुः प्रसह अन्तिम समय तक चतुविध संघ को प्रतिबोध करते रहेंगे । अन्तिम समय में प्राचार्य दुःप्रसह संघ को सूचित करेंगे कि त्र धर्म नहीं रहा, तो संघ उन्हें संघ से बहिष्कृत कर देगा । दुःप्रसह बारह वर्ष तक गृहस्थ पर्याय में रहेंगे और आठ वर्ष तक मुनिधर्म का पालन कर तेले के अनशनपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प में देवरूप से उत्पन्न होंगे ।"
पंचम आारक की समाप्ति के दिन गणधर्म, पाखण्डधर्म, राजधर्म, चारित्रधर्म और अग्नि का विच्छेद हो जायगा । पूर्वाह्न में चारित्र धर्म का, मध्याह्न में राजधर्म का और अपराह्न में अग्नि का इस भरतक्षेत्र की धरा से समूलोच्छेद हो जायगा ।" "
छट्ठे आरे के समय में भरतक्षेत्र की सर्वतोमुखी स्थिति के सम्बन्ध में गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने फरमाया - " गौतम ! पंचम आारक की समाप्ति के बाद वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के अनन्त पर्यवों के ह्रास को लिये हुए २१००० वर्ष का दुषमा दुषम नामक छट्ठा प्रारक प्रारम्भ होगा । उस छट्ठे श्रारे में दशों दिशाएँ हाहाकार, भांय- भांय (भंभाकार) श्रौर कोलाहल से व्याप्त होंगी। समय के कुप्रभाव के कारण प्रत्यन्त तीक्ष्ण, कठोर, धूलिमिश्रित, नितान्त प्रसह्य एवं व्याकुल कर देने वाली भयंकर आँधियाँ एवं तृणकाष्ठादि को उड़ा देने वाली संवर्तक हवाएँ चलेंगी। समस्त दिशाएँ निरन्तर
१ स्थानांग और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के आधार पर ।
२ भ० श० श० ७, उ० ६ ।
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