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________________ ४५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त रत्नावती ने कहा-“मगधपुर में मेरे पितृव्य धनावह श्रेष्ठी के घर ।" वरधनु ने रथ को मगधपुरी की ओर बढ़ाया। तरल तुरंगों की वायुवेग सी गति से दौड़ता हा रथ कौशाम्बी की सीमा पार कर भीषण वन में पहुंचा। मार्ग में डाकदल से संघर्ष, वरधन से वियोग आदि संकटों के बाद ब्रह्मदत्त राजगृह में पहुँचा । राजगृह के बाहर तापसाश्रम में रत्नवती को छोड़कर वह नगर में पहुँचा । राजगृह में विद्याधर नाट्योन्मत्त की खण्डा एवं विशाखा नाम को दो विद्याधर कन्याओं के साथ गान्धर्व विवाह सम्पन्न हुआ और दूसरे दिन वह श्रेष्ठी धनावह के घर पहुंचा। धनावह ब्रह्मदत्त को देखकर बड़ा प्रसन्न हुमा पौर उसने रत्नवती के साथ उसका विवाह कर दिया। धनावह ने कन्यादान के साथ-साथ अतुल धन-सम्पत्ति भी ब्रह्मदत्त को दी। ब्रह्मदत्त रत्नवती के साथ बड़े प्रानन्द से राजगृह में रहने लगा, पर अपने प्रिय मित्र वरधनु का वियोग उसके हृदय को शल्य की तरह पीड़ित करता रहा । उसने वरधन को ढंढने में किसी प्रकार को कोर-कसर नहीं रखो, पर हर संभव प्रयास करने पर भी उसका कहीं पता नहीं चला तो ब्रह्मदत्त ने वरधनु को मत समझ कर उसके मृतक-कर्म कर ब्राह्मणों को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। सहसा वरधनु भी ब्राह्मणों के बीच आ पहुँचा और बोला-"मुझे जो भोजन खिलाया जायेगा, वह साक्षात् वरधनु को ही प्राप्त होगा। अपने अनन्य सखा को सम्मुख खड़ा देख ब्रह्मदत्त ने उसे अपने बाहपाश में जकड़कर हृदय से लगा लिया और हर्षातिरेक से बोला-"लो! अपने पीछे किये जाने वाले भोजन को खाने के लिये स्वयं वह वरधनु का प्रेत चला पाया है।" सब खिलखिला कर हँस पड़े । शोकपूर्ण वातावरण क्षणभर में ही सुख और आनन्द के वातावरण से परिणत हो गया। ब्रह्मदत्त द्वारा यह पूछने पर कि वह एकाएक रथ पर से कहां गायब होगया ? वरधनु ने कहा-"दस्युमों के युद्धजन्य श्रमातिरेक से आप प्रगाढ़ निद्रा में सो गये । उस समय कुछ लुटेरों ने रथ पर पुनः प्राक्रमण किया । मैंने बाणों की बौछार कर उन्हें भगा दिया, पर वृक्ष की ओट में छपे एक चोर ने मुझ पर निशाना साध कर तीर मारा और में तत्क्षण पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा झाड़ियों में छुप गया। चोरों के चले जाने पर झाड़ियों में से रेंगता हुआ धीरे-धीरे उस गांव में आ पहुँचा जहाँ आप ठहरे हुए थे। ग्राम के ठाकुर से आपके कुशल समाचार विदित हो गये और अपने प्रेत-भोजन को ग्रहण करने में स्वयं आपको सेवा में उपस्थित हो गया।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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