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चक्रवर्ती]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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हारे हए दाँव को जीत कर सागरदत्त बड़ा प्रसन्न हुमा और कुमार के प्रति आभार प्रकट करते हुए उन दोनों मित्रों को अपने घर ले गया। सागरदत्त ने अपने सहोदर की तरह उन्हें अपने यहाँ रखा।
बुद्धिल को बहिन रत्नवती उद्यान में हुए कुक्कुट-युद्ध के समय ब्रह्मदत्त को देखते ही उस पर अनुरक्त हो गई। रत्नवती बड़ी ही चतुर थी। उसने अपने प्रियतम को प्राप्त करने का पूरा प्रयास किया। पहले उसने ब्रह्मदत्त के नाम से अंकित एक कीमती हार अपने सेवक के साथ ब्रह्मदत्त के पास भेजकर उसके मन में तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न करदी और तत्पश्चात् अपनी विश्वस्त वृद्धा परिचारिका के साथ अपनी प्रीति का संदेश भेजा।
ब्रह्मदत्त भी रत्नवती के अनुपम रूप एवं गुणों की प्रशंसा सुन उनके पास जाने को व्याकुल हो उठा, पर दीर्घ के अनुरोध पर कौशाम्बी का राजा ब्रह्मदत्त और वरधनु को सारे नगर में खोज करवा रहा था। इस कारण उसे अपने साथी वरधनु के साथ सागरदत्त के तलगृह में छिपे रहना पड़ा।
अर्द्धरात्रि के समय ब्रह्मदत्त और वरधनु सागरदत्त के रथ में बैठ कर कौशाम्बी से निकले। नगर के बाहर बड़ी दूर तक उन्हें पहुँचा कर सागरदत्त अपने घर लौट गया । ब्रह्मदत्त और वरधनु आगे की ओर बढ़े। वे थोड़ी ही दर चले होंगे कि उन्होंने एक पूर्णयौवना सुन्दर कन्या को शस्त्रास्त्रों से सजे रथ में बैठे देखा।
उस सुन्दरी ने सहज आत्मीयता के स्नेह से सने स्वर में पूछा--"प्राप दोनों को इतनी देर कहाँ हो गई ? मैं तो आपकी बड़ी देर से यहाँ प्रतीक्षा कर रही हूँ।"
कुमार ने आश्चर्य से पूछा-"कुमारिके ! हमने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा, हम कौन हैं, यह तुम कैसे जानती हो?"
रथारूढ़ा कुमारी ने अपना परिचय देते हुए कहा-“कुमार ? मैं बद्धिल की बहिन रत्नवती हूं । मैंने बुद्धिल और सागरदत्त के कुक्कुट-युद्ध में जिस दिन आपके प्रथम दर्शन किये तभी से मैं आपसे मिलने को लालायित थी-अब चिर-अभिलाषा को पूर्ण करने हेतु यहाँ उपस्थित हूं ! इस चिर-विरहिणी अपनी दासी को अपनी सेवा में ग्रहण कर अनुगृहीत कीजिये ।"
रत्नवती की बात सुनते ही दोनों मित्र उसके रथ पर बैठ गये। वरधन ने अश्वों की रास सम्हाल ली।
ब्रह्मदत्त ने रत्नावती से पूछा- “अब किस ओर चलना होगा ?"
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