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________________ विशिष्ट देवियों के रूप में ] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५१७ की आज्ञा लेकर भगवान् के समवशरण में पहुँची और पार्श्वनाथ के उपदेश को सुन कर एवं हृदयंगम करके बड़ी प्रसन्न हुई । उसने वन्दन के पश्चात् प्रभु से हाथ जोड़ कर कहा- "प्रभो ! मैं निर्ग्रथ प्रवचन पर श्रद्धा रखती हूँ और उसके आराधन के लिए समुद्यत हूँ । अपने मातापिता की आज्ञा प्राप्त कर मैं आपके पास प्रव्रजित होना चाहती हूँ ।" प्रभु पार्श्वनाथ ने कहा - " देवान्प्रिये ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा ही करो ।" घर लौट कर भूता कन्या ने अपने माता-पिता के समक्ष दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट कर उनसे प्राज्ञा प्राप्त कर ली । सुदर्शन गाथापति ने बड़े समारोह के साथ दीक्षा - महोत्सव प्रायोजित किया और एक हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली सुन्दर पालकी में भूता को बिठा कर दिशाओं को प्रतिध्वनित करने वाली विविध वाद्यों की ध्वनि के बीच स्वजन - परिजन सहित शहर के मध्यभाग के विस्तीर्ण राजपथ से वह गुणशील चैत्य के पास पहुँचा । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के प्रतिशयों को देखते ही भूता कन्या शिबिका से उतरी । गाथापति सुदर्शन और उसकी पत्नी प्रिया अपनी पुत्री भूता को आगे कर प्रभु के पास पहुँचे और प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन, नमस्कार के पश्चात् कहने लगे -- "भगवन् ! यह भूता दारिका हमारी इकलौती पुत्री है, जो हमें प्रत्यन्त प्रिय है । यह संसार के जन्म-मरण के भय से उद्विग्न हो आपकी सेवा में प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती है । अतः हम आपको यह शिष्यारूपी भिक्षा समर्पित करते हैं । प्रभो ! अनुग्रह कर आप इस भिक्षा को स्वीकार कीजिये ।" भगवान् पार्श्वनाथ ने कहा - "देवानुप्रियो ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो ।” तदनन्तर वृद्धकुमारिका भूता ने हृष्टतुष्ट हृदय से ईशान कोण में जाकर आभूषण उतारे और वह पुष्पचूला आर्या के पास प्रव्रजित हो गई । उसके बाद कालान्तर में वह भूता प्रार्या शरीरबाकुशिका ( अपने शरीर की अत्यधिक सार सम्हाल करने वाली ) हो गई और अपने हाथों, पैरों, शिर, मुँह आदि को बार-बार धोती रहती । जहाँ कहीं, सोने, बैठने और स्वाध्याय श्रादि के लिए उपयुक्त स्थान निश्चित करती तो उस स्थान को पहले पानी से छिड़कती और फिर उस स्थान पर सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती थी । यह देख कर प्रार्या पुष्पचूला ने उसे बहुतेरा समझाया कि साध्वी के लिए शरीरबाकुशिका होना उचित नहीं है, अतः इस प्रकार के आचरण के लिए वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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