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जैन धर्म का मौलिग इतिहास
[अस्थिग्राम में
सहने और यक्ष को प्रतिबोध देने के लिए वहीं ठहरना स्वीकार किया। भगवान् वहाँ एक कोने में ध्यानावस्थित हो गये।'
संध्या के समय पपा के लिए पुजारी इन्द्रशर्मा यक्षायतन में पाया । उसने पूजा के बाद सब यात्रियों को वहाँ से बाहर निकाला और महावीर से भी बाहर जाने को कहा, किन्तु वे मौन थे । इन्द्रशर्मा ने वहा होने वाले यक्ष के भयंकर उत्पात की सूचना दी, फिर भी महावीर वहीं स्थिर रहे । अाखिर इन्द्र शर्मा वहाँ से चला गया ।
रात्रि में अंधकार होने के पश्चात् यक्ष प्रकट हुआ। भगवान् को ध्यानस्थ देख कर वह बोला- "विदित होता है, लोगों के निषेध करने पर भी यह नहीं माना । संभवतः इसे मेरे पराक्रम का पता नहीं है।" इस विचार से उसने भयंकर अट्टहास किया, जिससे सारा वन-प्रदेश कांप उठा। किन्तु महावीर सुमेरु की तरह अडिग बने रहे। उसने हाथी का रूप बना कर महावीर को दाँतों से बुरी तरह गोदा और पैरों से रौंदा तथापि प्रभु किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं हुए। तत्पश्चात् पिशाच का रूप बना कर उसने तीक्ष्ण नखों व दाँतों से महावीर के शरीर को नोंचा, सर्प बन कर डसा, फिर भी महावीर ध्यान में स्थिर रहे । बाद में उसने महावीर के अाँख, कान, नासिका, शिर, दाँत, नख और पीठ इन सात स्थानों में ऐसी भयंकर वेदना उत्पन्न की कि साधारण प्राणी तो छटपटा कर तत्काल प्राण ही छोड़ देता, पर महावीर सभी प्रकार के कष्टों को शान्त भाव से सहते रहे । परिणामस्वरूप यक्ष हार कर प्रभु के चरणों में गिर पड़ा और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगते हुए प्रणाम कर वहाँ से चला गया। रात्रि के अन्त में उसके उपसर्ग बन्द हुए।
प्रथम वर्षावास में अस्थिग्राम के बाहर शलपाणि ने उपसर्ग दिये, ४ पहर कुछ कम मुहूर्त भर निद्रा, १० स्वप्न--प्राब० मल और चूणि ।
भगवती सूत्र में छद्मस्थकाल की अंतिम रात्रि में दश स्वप्नों को देखकर जागृत होना लिखा है, वहां का पाठ इस प्रकार है-'समणे भ० म० छउमत्थ
१ अथ ग्राम्यैरनुज्ञाता, बोधार्ह व्यन्तरं विदन् । तदायतनंककोणे, तस्थौ प्रतिमया प्रभुः ।
[त्रि. श. पु. च, १०३।२१७] २ खोभेठं ताहे पभायसमए सत्तविवं वेयरणं करेति ।।
[प्राव. चू, १ भाग, पृ० २७४] ३ चक्रे सर्प सुधाभूते, भूतराट् सप्तवेदनाः ।......
एकापि वेदना मृत्युकारणं प्राकृते नरे । अधिसेहे तु ताः स्वामी, सप्ताऽपियुगपद्भवाः ।
[त्रि. श. पु. च., १०।३।१३१ से]
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