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प्रथम वर्ष]
भगवान् महावीर
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जाने पर वहाँ से विहार कर दिया। उस समय प्रभु ने पाँच प्रतिज्ञाएं' ग्रहण की। यथा :
(१) अप्रीतिकारक स्थान में कभी नहीं रहूँगा। (२) सदा ध्यान में ही रहूँगा। (३) मौन रखूगा, किसी से नही बोलूगा । (४) हाथ में ही भोजन करूंगा और (५) गृहस्थों का कभी विनय नहीं करूंगा।
मूल शास्त्र में इन प्रतिज्ञाओं का कहीं उल्लेख नहीं मिलता । परम्परा से प्रत्येक तीर्थंकर छद्मस्थकाल तक प्राय: मौन माने गये हैं। प्राचारांग के अनुसार महावीर ने कभी परपात्र में भोजन नहीं किया । परन्तु मलयगिरि ने प्रतिज्ञा से पूर्व भगवान् का गृहस्थ के पात्र में आहार ग्रहण करना स्वीकार किया है। यह शास्त्रीय परम्परा से विचारणीय है ।
अस्थिग्राम में यक्ष का उपद्रव आश्रम से विहार कर महावीर अस्थिग्राम की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उनको संध्या का समय हो गया। वहाँ प्रभु ने एकान्त स्थान की खोज करते हुए नगर के बाहर शूलपाणि यक्ष के यक्षायतन में ठहरने की अनमति ली। उस समय ग्रामवासियों ने कहा-"महाराज! यहाँ एक यक्ष रहता है, जो स्वभाव से क्रूर है । रात्रि में वह यहाँ किसी को नहीं रहने देता । अतः प्राप कहीं अन्य स्थान में जाकर ठहरे तो अच्छा रहेगा। पर भगवान् ने परीषह
१ (क) इमेण तेण पंच अभिग्गहा गहिया.....
[प्रा. मलय नि,, पत्र २६८ (१)] (ख) इमेण तेण पंच अभिग्गहा गहिता......
[प्रावश्यक चू., पृ० २७१] (ग) नाप्रीतिमद् गृहे वासः, स्थेयं प्रतिमया सह । न गेहिविनयं कार्यो, मौनं पाणी च भोजनम् ।।
[कल्पसूत्र सुबोधा०, पृ० २८८] २ नो सेवई य परवत्थं, परसाए वि से त भुजित्था
[प्राचा., ११६१, गा० १६] ३ (क) प्रथमं पारणकं गृहस्थपात्रे बभूव, ततः पाणिपात्रभोजिना मया भवितव्यमित्यभिग्रहो गृहीतः ।
[प्राव. म. टी., पृ. २६८ (२)] (ख) भगवया पढ़म पारणगे परपत्तमि मुत्तं ।।महावीर चरिय।।
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