SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 638
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [साधना का और उनसे वहाँ ठहरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना को मान देकर महावीर ने रात्रिपर्यन्त वहाँ रहना स्वीकार किया। दूसरे दिन जब महावीर वहाँ से प्रस्थान करने लगे तो कुलपति ने भावपूर्ण प्राग्रह के साथ कहा-"यह प्राश्रम दूसरे का नहीं, आपका ही है, अतः वर्षाकाल में यहीं रहें तो बहुत अच्छा रहेगा।" कुलपति की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए भगवान् कुछ समय के लिये आसपास के ग्रामों में घूम कर पुनः वर्षावास के लिये वहीं पा गये और वहीं एक पर्णकुटी में रहने लगे। महावीर के हृदय में प्राणिमात्र के लिये मैत्री-भावना थी। किसी का कष्ट देख कर उनका मन दया से द्रवित हो जाता था। यथासंभव किसी को किसी प्रकार का कष्ट न होने देना, यह उनका अटल संकल्प था । संयोगवश उस वर्ष पर्याप्त रूप से वो नहीं होने के कारण कृषि तो दरकिनार, घास, दूब, वल्लरी, पत्ते आदि तक भी अंकुरित नहीं हुए। परिणामतः भूखों मरती गायें आश्रम की झोंपड़ियों के तृण खाने लगीं। अन्यान्य कुटियों में रहने वाले परिव्राजक गायों को भगा कर अपनी-अपनी झोंपड़ी की रक्षा करते, पर महावीर सम्पूर्ण सावध कर्म के त्यागी और निःस्पृह होने के कारण सहज भाव से ध्यान में खड़े रहे। उनके मन में न कुलपति पर राग था और न गायों पर द्वेष । वे पूर्ण निर्मोही थे । किसी को पीड़ा पहुंचाना उनके साधु-हृदय को स्वीकार नहीं हुआ। अतः वे इन बातों की ओर ध्यान न देकर रात-दिन अपने ध्यान में ही निमग्न रहे । ___ जब दूसरे तापसों ने कुलपति से कुटी की रक्षा न करने के सम्बन्ध में महावीर की शिकायत की तो मधुर उपालंभ देते हुए कुलपति ने महावीर से कहा- "कुमार ! ऐसी उदासीनता किस काम की? अपने घोंसले की रक्षा तो पक्षी भी करता है,फिर आप तो क्षत्रिय राजकुमार हैं । क्या आप अपनी झोंपड़ी भी नहीं सँभाल सकते ?" महावीर को कुलपति की बात नहीं जंची । उन्होंने सोचा-"मेरे यहां रहने से पाश्रमवासियों को कष्ट होता है, कुटी की रक्षा का प्रश्न तो एक बहाना मात्र है । सचेतन प्राणियों की रक्षा को भुला कर क्या में अचेतन कुटी के संरक्षण के लिए ही साधु बना हूँ ? महल छोड़ कर पर्णकुटीर में बसने का क्या मेरा यही उद्देश्य है कि आपद्ग्रस्त जीवों को जीने में बाधा दू? और ऐसा न कर सकतो अकर्मण्य तथा अनुपयोगी सिद्ध होऊं । मुझे अब यहाँ नहीं रहना चाहिये ।" ऐसा सोच कर उन्होंने वर्षाऋतु के पन्द्रह दिन बीत १ (क) ताहे सामी विहरमाणो गतो मोरागं सन्निवेस, तत्थ दूइज्जंतगाणाम पासरत्या - प्राव. चू. उपोद्घात नि., पृ० २७१ (ख) अन्यदा विहरन् स्वामी मोराके सन्निवेशने । [त्रि. श. पु. च., १०१३।४६ से] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy