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________________ ५७३ की साधना भगवान् महावीर से ध्यान करते रहते। जहाँ भी कोई स्थान छोड़ने के लिये कहता, सहर्ष वहाँ से हट जाते थे । साधनाकाल में महावीर ने प्राय: कभी नींद नहीं ली, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जब उन्हें निद्रा सताती तो वे खड़े हो जाते अथवा रात्रि में कुछ समप चंक्रमण कर नींद को भगा देते थे। इस प्रकार प्रतिक्षण, प्रतिपल जागृत रह कर वे निरन्तर ध्यान, चिन्तन और कायोत्सर्ग में रमण करते । विहार के प्रसंग में प्रभु कभी अगल-बगल में या मुड़कर पीछे की ओर भी नहीं देखते । मार्ग में वे किसी से बोलते नहीं थे । क्षुधा-शान्ति के लिये वे कभी आधाकर्मी या अन्य सदोष आहार ग्रहण नहीं करते थे। लाभालाभ में समभाव रखते हुए वे घर-घर भिक्षाचर्या करते । महल, झोंपड़ी या धनी-निर्धन का उनकी भिक्षाचर्या में कोई भेद-भाव नहीं होता था। साथ ही आहार के लिये वे कभी किसी के आगे दीन-भाव भी नहीं दिखाते थे। सुस्वादु पदार्थों की आकांक्षा न करते हुए अवसर पर जो भी रूखा-सूखा ठंडा-बासी, उड़द, सूखा भात, थंथ-बोर की कुट्टी आदि आहार मिल जाता उसे वे निस्पृह भाव से ग्रहण कर लेते।' शरीर के प्रति महावीर की निर्मोह भावना बड़ी आश्चर्योत्पादक थी। वे न सिर्फ शीतातप की ही उपेक्षा करते थे बल्कि रोग उत्पन्न होने पर भी कभी औषधसेवन नहीं करते थे । अाँख में रज-करण आदि के पड़ जाने पर भी वे उसे निकालने की इच्छा नहीं रखते थे। कारणवश शरीर खुजलाने तक का भी वे प्रयत्न नहीं करते थे। इस रह देह के ममत्व से अत्यन्त ऊपर उठ कर वे संदेह होते हुए भी देह मुक्त से, विदेवत् प्रतीत होते थे। दीक्षा के समय जो दिव्य सुगन्धित वस्त्र और विलेपन उनके शरीर पर थे, उनको उत्कट सुवास-सुगन्ध से आकृष्ट होकर चार मास तक भ्रमर आदि सुरभिप्रेमी कीट उनके शरीर पर मँडराते रहे और अपने तीक्ष्ण दंश से पीड़ा पहुंचाते रहे, मांस को नोचते रहे, कीड़े शरीर का रक्त पीते रहे, पर महावीर ने कभी उफ तक नहीं किया और न उनका निवारण ही किया। वस्तुतः साधना की ऐसी अनुपम सहिष्णुता का उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। साधना का प्रथम वर्ष 'कोल्लाग' सनिवेश से विहार कर भगवान महावीर 'मोराक' सन्निवेश पधारे । वहाँ का 'दूइज्जतक' नाम के पाषंडस्थों के आश्रम का कुलपति महाराज सिद्धार्थ का मित्र था। महावीर को आते देख कर वह स्वागतार्थ सामने आया १ अविसूइयं वा, सुक्कं वा सीयपिडं पुराण कुम्मासं । अदुवुकस पुलागं वा, [प्राचारांग भा० ४] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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