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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ भगवान् महावीर
उन्होंने
तप का प्रथम पारखा किया ।' 'अहो दानमहो दानम्' के दिव्यघोष के साथ देवगरण ने नभामण्डल से पंच- दिव्यों की वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की ।
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भगवान् महावीर की साधना
श्राचारांगसूत्र और कल्पसूत्र में महावीर की साधना का बहुत विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा गया है कि दीक्षित होकर महावीर ने अपने पास देवदूष्य वस्त्र के अतिरिक्त कुछ नहीं रखा । लगभग तेरह मास तक वह वस्त्र भगवान् के कंधे पर रहा। तत्पश्चात् उस वस्त्र के गिर जाने से वे पूर्णरूपेण ग्रचल हो गये ।
अपने साधनाकाल में वे कभी निर्जन झोंपड़ी, कभी कुटिया, कभी धर्मशाला या प्याऊ में निवास करते थे । शीतकाल में भयंकर से भयंकर ठंड पड़ने पर भी वे कभी बाहुनों को नहीं समेटते थे ! वे नितान्त सहज मुद्रा में दोनों हाथ फैलाये विचरते रहे । शिशिरकाल में जब जोर-जोर से सनसनाता हुआ पदन चलता, कड़कड़ाती सर्दी जब शरीर को ठिठुरा कर असह्य पीड़ा पहुंचाती, उस समय दूसरे साधक शीत से बचने हेतु गर्म स्थान की गवेषणा करते, गर्म वस्त्र बदन पर लपेटते और तापस आग जला कर सर्दी से बचने का प्रयत्न करते, परन्तु श्रमण भगवान् महावीर ऐसे समय में भी खुले स्थान में नंगे खड़े रहते और सर्दी से बचाव की इच्छा तक भी नहीं करते ।
खुले शरीर होने के कारण सर्दी-गर्मी के अतिरिक्त उनको दंश, मशक श्रादि के कष्ट एवं अनेक कोमल तथा कठोर स्पर्श भी सहन करने पड़ते । निवासप्रसंग में भी, जो प्रायः शून्य स्थानों में होता, प्रभु को विविध उपसर्गों का सामना करना पड़ता । कभी सर्पादि विषैले जन्तु और काक, गीध प्रादि तीक्ष्ण चञ्चु वाले पक्षियों के प्रहार भी सहन करने पड़ते ।
कभी-कभी साधनाकाल में दुष्ट लोग उन्हें चोर समझ कर उन पर शस्त्रों से प्रहार करते, एकान्त में पीटते और अत्यधिक तिरस्कार करते । कामातुर नारियाँ उन्हें भोग- भावना से विमुख देख विविध उपसर्ग देतीं, किन्तु उन सारी बाधाओं और उपसर्गों के बीच भी प्रभु समभाव से अचल, शान्त और समाधिस्थ रहते, कभी किसी प्रकार से मन में उद्वेग नहीं लाते और रात-दिन समाधिभाव
१ (ग) प्राचारांग द्वितीय भावना ॥
(ख) बीय दिवसे छट्ट पाल्लरगए कोल्लाए सन्निवेसे घयमहुसंजुत्तणं परमन्नेणं बहुलेण माहणेण पडिलाभितो, पंच दिव्वा । प्राव० ० २७० पृ० ।
२ प्रा० प्र०, ६।१।४५
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