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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [मजातशत्रु कूणिक वन्दन स्वीकार नहीं किया । कूणिक ने कारण पूछा तो बोली-"जो अपने उपकारी पिता को कारावास में बंद कर स्वयं राज्य करे ऐसे पुत्र का मुंह देखना भी पाप है।" उपकार की बात सुनकर कणिक का पितृ-प्रेम जागृत हुआ और वह तत्काल हाथ में पर लेकर पिता के बन्धन काटने कारागृह की ओर बढ़ा। श्रेणिक ने परशु हाथ में लिये कूणिक को आते देखकर अनिष्ट की आशंका से सोचा-"यह मुझे मारे इसकी अपेक्षा मैं स्वयं अपना प्राणान्त करलू तो यह मेरा पुत्र पितृहत्या के कलंक से बच जायगा।" यह सोचकर श्रेणिक ने तालपुट विष खाकर तत्काल प्राण त्याग दिये।
श्रेणिक की मृत्यु के बाद कणिक को बड़ा अनुताप हुआ। वह मछित हो भूमि पर गिर पड़ा। क्षणभर बाद सचेत हया और प्रार्त स्वर में रुदन करने लगा-"अहो ! मैं कितना अभागा एवं अधन्य हूं कि मेरे निमित्त से देवतुल्य पिता श्रेणिक कालगत हुए। शोकाकुल हो कूरिणक ने राजगृह छोड़कर चम्पा में मगध की राजधानी बसायी और वहीं रहने लगा।
कुणिक की रानियों में पद्मावती, धारिणी, और सुभद्रा प्रमुख थीं। प्रावश्यक चरिण में आठ राजकन्याओं से विवाह करने का भी उल्लेख है। पर उनके नाम उपलब्ध नहीं होते। महारानी पद्मावती का पुत्र उदाई था' जो कणिक के बाद मगध के राज-सिंहासन पर बैठा। इसी ने चम्पा से अपनी राजधानी हटाकर पाटलिपुत्र में स्थापित की।
चेलना के संग और संस्कारों ने कूणिक के मन में भगवान महावीर के प्रति अटूट भक्ति भरदी थी।
प्रावश्यक चूणि, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र प्रादि जैन ग्रन्थों में महाराज कूणिक का एक दूसरा नाम अशोकचन्द्र भी उपलब्ध होता है । भगवान् महावीर के प्रति उसके हृदय में कितनी प्रगाढ़ भक्ति और अनुपम श्रद्धा थी, इसका अनुमान प्रोपपातिक सत्र के प्रधोलिखित पाठ से सहज ही में लगाया जा सकता है :
तस्स णं कोणिमस्स रण्णो एक्के पुरिसे विउलकय-वित्तिए भगवो पवित्तिवाउए भगबनो तद्देवसिप्रं पवित्ति णिवेएइ, तस्स रणं पुरिसस्स बहवे अण्णे १ तस्सणं कुणियस्स रष्णो पउमावई नामं देवी होत्या। [निरयावली, सूत्र ] २ उबवाई सूत्र । ३ उबवाई सत्र २३ । ४ कुणियस्स महिं रायबर कन्नाहिं समं विगाहो कतो। [भाव पूणि उत्त० पत्र १९७] ५ मावश्यक चूर्णि, पत्र १७१ । ६ मावश्यक पूणि, पत्र १७७ ।
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