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और ब्रह्मा] भगवान् ऋषभदेव
. १३६ थी। इसलिए आपका हिरण्यगर्भ' नाम सार्थक है। प्रजापति - कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद असि, मसि, कृषि प्रादि छः
कर्मों का उपदेश देकर आपने ही प्रजा की रक्षा की थी, अतः पाप
प्रजापति कहलाये। लोकेश - समस्त लोक के स्वामी होने के कारण आप लोकेश कहलाये । नाभिज - नाभिराज नामक चौदहवें (सातवें) मनु से उत्पन्न हुए थे, इसलिए
नाभिज कहलाए। चतुरानन -- समवसरण में चारों ओर से आपके दर्शन होते थे, इसलिए
आप चतुरानन कहे जाते थे। स्रष्टा - भोगभूमि नष्ट होने के बाद देश, नगर आदि का विभाग,
राजा, प्रजा, गरु, शिष्य आदि का व्यवहार और विवाह प्रथा आदि
के आप आद्य-प्रवर्तक थे, इसलिए स्रष्टा कहे गए। स्वयम्भ - दर्शन विशुद्धि आदि भावनाओं से अपनी आत्मा के गणों का विकास
कर स्वयं ही पाद्य तीर्थकर हुए, इसलिए स्वयंभू कहलाए। [प्रादि पुराणम्, प्रथमो विभागः प्रस्तावना पृ० १५, जिनसेनाचार्य]
सार्वभौम प्रादि नायक के रूप में लोकव्यापो कोति भ० ऋषभदेव के आद्योपान्त समग्र जीवन चरित्र और उनके सम्बन्ध में भारत के प्राचीन धर्म-ग्रन्थों-वेदों, वैष्णव, भागवत, शैव प्रति विभिन्न आम्नायों के उपरिवरिंगत १० पुराणों, मनुस्मृति एवं बौद्ध ग्रन्थ आर्य मंजुश्री आदि के श्रद्धा-श्लाघा से ओतप्रोत गौरव गरिमापूर्ण उल्लेखों पर चिन्तन-मनन करने से सहज ही प्रत्येक व्यक्ति को यह विदित हो जाता है कि यगादि की सम्पूर्ण मानवता ने भ० ऋषभदेव को, अपने अन्तस्तल से उद्भूत सर्वसम्मत समवेत स्वर से अपने सार्वभौम लोकनायक-सार्वभौम धर्मनायक और सर्वोच्च सार्वभौम हृदयसम्राट के रूप में स्वीकार किया था।
मानव संस्कृति की उच्च एवं प्रादर्श मानवीय मर्यादानों के महानिधान तुल्य 'मनुस्मृति' नामक प्राचीन ग्रन्थ में तो नाभि के सुपुत्र मरुदेवीनन्दन ' मैषा हिरण्मयी वृष्टिर्घ नेशेन निपातिता। विभोहिरण्यगर्भत्वमिवबोधयितु जगत् ।। महापुराण पर्व १२-श्लोक ६५ हिरण्यगर्भस्त्वं धाता जगतां त्वं म्वभूरमि । निभमात्रं त्वदुत्पत्ती पितृ मन्या यतो वयम् ।। महापुराण पर्व १५ श्लो० ५७
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