________________
जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ सार्वभौम आदि नायक के
उरुक्रम --भगवान् ऋषभ को, जैन आगमों के उल्लेखों के अनुरूप ही युगादि में लोकनीति, राजनीति और धर्मनीति- इन तीनों नीतियों का जन्मदाताआदिकर्ता कर्मवीरों तथा धर्मवीरों के मार्ग का प्रवर्तक, सकल सुरासुरों का वन्दनीय और प्रथम जिन माना गया है ।
१४०
भगवान् ऋषभदेव के लोकोत्तर विराट् व्यक्तित्व का जिस श्रद्धा के साथ जैन धर्म के आगम ग्रन्थों में दिग्दर्शन कराया गया है, ठीक उसी प्रकार की अगाध प्रगाढ़ श्रद्धा के साथ भारत के प्रायः सभी प्राचीन धर्मों के पवित्र धर्मग्रन्थों में भी उनके लोकव्यापी सार्वभौम वर्चस्व का प्रभाव का प्रतिपादन किया गया है । इसका एकमात्र कारण यही है कि युगादि के नितान्त निरीह एवं भोले मानव समाज की विपन्नावस्था से द्रवित हो भ० ऋषभदेव ने जिस प्रकार समग्र मानव समाज को अभाव अभियोगविहीन, सुरोपम समृद्ध और सर्व सौख्यसम्पन्न लौकिक जीवन के निर्माण का प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया, उसी प्रकार संसार के प्राणिमात्र के कल्याण हेतु सौख्यपूर्ण परलोकनिर्माण का जन्म-जरामृत्यु का सदा-सर्वदा के लिये अन्त कर अक्षय-अव्याबाध शाश्वत शिवसुख प्राप्ति का मार्ग भी बताया । भगवान् ऋषभदेव ने मानवता को इस लोक के साथ-साथ परलोक को भी सुखद-सुन्दर और अन्ततोगत्वा शाश्वत सौख्यपूर्ण बनाने के जो मार्ग बताये वे दोनों ही मार्ग न केवल मानव मात्र ही अपितु प्राणिमात्र के लिये वरदान स्वरूप सिद्ध हुए । उनके द्वारा प्राविभूत की गई लोकनीति और राजनीति जिस प्रकार किसी वर्ग विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के लिये नहीं अपितु समष्टि के हित के लिये थी, उसी प्रकार उनके द्वारा स्थापित धर्ममार्ग भी निश्शेष प्राणिवर्ग के कल्याण के लिये समष्टि के कल्याण के लिये था । यही कारण था कि भ० ऋषभदेव द्वारा मानव के इहलौकिक हित के लिये स्थापित की गई नीति लोकनीति के नाम से और उनके द्वारा समष्टि के प्राध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिये प्रकट किया गया धर्ममार्ग विश्वधर्म अथवा शाश्वत धर्म के नाम से त्रैलोक्य में विख्यात हुआ। जिस प्रकार भगवान् ऋषभदेव द्वारा संस्थापित लोकनीति किसी वर्ग, जाति, प्रान्त अथवा देश विशेष के लिये नहीं किन्तु सम्पूर्ण मानव समाज के हित के लिये थी, उसी प्रकार उनके द्वारा प्रकट किया गया धर्म भी समष्टि के - विश्व के कल्याण के लिये, आध्यात्मिक उत्थान के लिये था । उनके द्वारा प्रकट किया गया धर्म विश्वधर्म था । यही कारण था कि युगादि के सम्पूर्ण मानव समाज ने भ० ऋषभदेव द्वारा स्थापित लोकनीति को, धर्म को सर्वसम्मति से समवेत स्वरों में शिरोधार्य कर स्वीकार किया । युगादि के मानव समाज द्वारा स्वीकार किये गये, सर्वात्मना सर्वभावेन अंगीकार किये गये उस विराट् विश्वधर्म का नाम सब प्रकार के विशेषरणों से रहित केवल 'धर्म' ही था। भ० ऋषभदेव द्वारा निखिल विश्व के प्राणिमात्र के कल्याण के लिये स्थापित किया गया और युगादि के अखिल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org