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________________ ६३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का ग्यारहवां वर्ष इस प्रकार ज्ञान की गंगा बहाते हुए भगवान् ने यह चातुर्मास राजगृह में पूर्ण किया। केवलीचर्या का ग्यारहवां वर्ष भगवान महावीर की देशना में जो विश्वमैत्री और त्याग-तप की भावना थी, उससे प्रभावित होकर वेद परम्परा के अनेक परिव्राजकों ने भी प्रभ का शिष्यत्व स्वीकार किया । राजगृह से विहार कर जब प्रभु 'कृतंगला-कयंगला' नगरी पधारे तो वहाँ के "छत्रपलाश उद्यान में समवशरण हुआ। उस समय कयंगला के निकट श्रावस्ती नगर में “स्कंदक" नाम का परिव्राजक रहता था जो कात्यायन गोत्रीय ‘गर्दभाल' का शिष्य था । वह वेद-वेदांग का विशेषज्ञ था । वहाँ एक समय पिंगल नाम के एक निग्रंथ से उसकी भेंट हुई। स्कंदक के आवास की ओर से निकलते हुए पिंगल ने स्कंदक से पूछा-“हे मागध ! लोक अन्त वाला है या अन्तरहित ? इसी प्रकार जीव, सिद्धि और सिद्ध अंत वाले हैं या अंतरहित ? और किस मरण से मरता हुअा जीव घटता अथवा बढ़ता है ? इन चार प्रश्नों का उत्तर दो।" स्कंदक बहुत बार सोच कर भी निर्णय नहीं कर सका कि उत्तर क्या दिया जाय ? वह शंकित हो गया। उस समय उसने 'छत्रपलाश' में भगवान के पधारने की बात सुनी तो उसने विचार किया कि क्यों नहीं भगवान महावीर के पास जाकर हम शंकाओं का निराकरण करलें । वह मठ में आया और त्रिदंड, कुडिका, गेरुमां वस्त्र प्रादि धारण कर कयंगला की ओर चल पड़ा। उधर महावीर ने गौतम को सम्बोधन कर कहा-“गौतम ! आज तुम अपने पूर्व-परिचित को देखोगे।" गौतम ने प्रभु से पूछा-"भगवन् ! वह कौन पूर्व-परिचित है, जिसे मैं देखूगा ।" प्रभु ने स्कंदक परिव्राजक का परिचय दिया और बतलाया कि वह थोड़े ही समय बाद यहाँ पाने वाला है। गौतम ने जिज्ञासा की-"भगवन् ! क्या वह आपके पास शिष्यत्व ग्रहण करेगा ?" महावीर बोले-"हाँ गौतम ! स्कंदक निश्चय ही मेरा शिष्यत्व स्वीकार करने वाला है।" स्कंदक के प्रश्नोत्तर गौतम मौर महावीर स्वामी के बीच इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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