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________________ १०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन घर को रंजित किया गया था। नगरी के मुख्य द्वारों, राजपथ, वीथियों, चतुष्पथों आदि को ध्वजाओं, पताकाओं, तोरणों प्रादि अद्भुत कलाकारी द्वारा सजाया गया था। स्थान-स्थान पर रखे हुए पपात्रों में मन्द-मन्द धुकधुकाती धूप एवं सुगन्धित धूप गुटिकाओं से निकल कर वायुमण्डल में व्याप्त हो रहे सुगन्धित धूम्र से नगरी का समग्र वातावरण गमक उठा था। महाराज भरत अपनी उस अनुपम ऋद्धि के साथ नगरी के मध्यवर्ती राजपथ पर अग्रसर होते हुए जिस समय राजप्रासाद की ओर बढ़ रहे थे उस समय पग-पग पर नागरिकों द्वारा उनका अभिवादन किया गया, स्थान-स्थान पर उनका स्वागत किया गया, उन पर रंग-बिरंगे सुगन्धित पुष्पों की वर्षा की गई । देवों ने राजपथ पर, वीथियों में और स्थान-स्थान पर सोने, चांदी, रत्नों, आभरणों, अलंकारों एवं वस्त्रों की वर्षा की। स्तुति पाठकों के सुमधुर कण्ठों से उद्गत अद्भुत शब्द सौष्ठवपूर्ण सस्वर स्तुति गानों से श्रोता सम्मोहित हो उठे । बन्दीजनों द्वारा गाये गये भरत के महिमागान को सुन विनीता के नागरिकों का भाल गर्व से उन्नत और हृदयकमल हर्ष से प्रफुल्लित हो उठा । विनीता का वातावरण प्रानन्द और उल्लास से अोतप्रोत हो हर्ष की हिलोरों पर झूम उठा। इस प्रकार अगाध प्रानन्दोदधि की उत्ताल तरंगों पर जन-मन और स्वयं को झुलाते हुए निखिल भरत क्षेत्र के एकछत्र अधिपति भरत चक्रवर्ती अपने भव्य राजभवन के अतीव सुन्दर अवतंसक द्वार पर आये । हाथी के होदे से नीचे उतर कर भरत ने क्रमशः सोलह हजार देवों, बत्तीस हजार मुकुटधारी राजाओं, सेनापति रत्न, गाथापति रत्न, वाद्धिक रत्न, पुरोहित रत्न, ३६० रसोइयों, अठारह श्रेणियों, अठारह ही प्रश्रेणियों, सब राजकीय विभागाध्यक्षों एवं सार्थवाह प्रमुखों का सत्कार सम्मान किया और उन्हें अच्छी तरह सम्मानित कर विजित किया। उन सब को विसजित करने के पश्चात् महाराज भरत ने अपने स्त्री रत्न, बत्तीस हजार ऋतु कल्याणिकानों, बत्तीस हजार जनपद कल्यारिणकानों और बत्तीस हजार नाटक सूत्रधारिकाओं के परिवार के साथ अपने गगनचुम्बी विशाल राजप्रासाद में प्रवेश किया । राजप्रासाद में प्रवेश कर भरत ने अपने आत्मीयों, मित्रों, जाति बन्धुओं, स्वजनों, सम्बन्धियों एवं परिजनों से मिल कर उनसे उनके कुशलक्षेम के सम्बन्ध में पूछा । तदनन्तर स्नानादि से निवृत्त हो भोजनशाला में प्रवेश कर अपने १२वें अष्टमभक्त तप का पारण किया । तदनन्तर महाराज भरत ने अपने राजप्रासाद के निजी कक्ष में प्रवेश किया और वहां वे वाद्य यन्त्रों की धुनों, तालों और स्वरलहरियों के साथ पूर्णतः तालमेल रखने वाले नृत्य, संगीत और बत्तीस प्रकार के नाटकों का आनन्द लूटते हुए अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम सुखोपभोगों का उपभुजन करते हुए रहने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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