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[ वर्षीदान ]
भ० अजितनाथ
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त्सव का आयोजन किया। सभी इन्द्रों और सगर ने प्रभु का अभिषेक किया । अभिषेकानन्तर दिव्य गन्धादि के विलेपन एवं वस्त्राभूषणों से प्रभु को अलंकृत कर सुप्रभा नाम की शिविका में विराजमान किया गया । देव देवियों एवं नरनारियों के समूह प्रभु का अभिनिष्क्रमरण महोत्सव देखने के लिए उद्वेलित अथाह उदधि की तरह उमड़ पड़े । नर-नरेन्द्रों एवं देवेन्द्रों ने प्रभु की पालकी को उठाया । देव-देवेन्द्रों तथा नर-नरेन्द्रों के विशाल समूह के कण्ठों से उद्घोषित जयघोषों के बीच, पग-पग पर प्रभिनन्दित-प्रभिवद्धित होती हुई प्रभु की सुप्रभा शिबिका राजधानी के राजपथ से होती हुई विनीता नगरी के बहिर्भागस्थ सहस्राम्र वन में पहुंची । गगनमण्डल को गुंजरित कर देने वाले जयघोषों के साथ प्रभु सुप्रभा शिबिका से उतरे ।
दीक्षा
माघ शुक्ला नवमी के दिन चन्द्र का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर प्रभु अजितनाथ ने स्वयं ही वस्त्रालंकारों को उतार कर इन्द्र द्वारा समर्पित देवदृष्य धारण किया । तदनन्तर प्रभु ने पंचमुष्टिक लुचन कर 'नमो सिद्धाणं' के उच्चाररण के साथ सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार कर षष्ठभक्त की तपश्चर्या सहित एक हजार राजाओं के साथ यावज्जीवन सामायिक चारित्र स्वीकार किया ।
दीक्षित होते ही तीर्थंकरों को मनः पर्यवज्ञान हो जाता है, यह एक अपरिवर्तनीय सनातन नियम है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, प्रभु अजितनाथ विजयविमान से च्यवन के समय से ही मति, श्रुति और अवधिइन तीन ज्ञान के साथ माता विजयादेवी के गर्भ में आये थे । इस प्रकार दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व वे इन तीन ज्ञान के धारक तो थे ही। सामायिक चारित्र स्वीकार करते समय भगवान् प्रजितनाथ प्रशस्त भावों के उत्तम रस युक्त अप्रमत्त गुणस्थान में स्थित थे । अतः दीक्षा ग्रहण करते ही उनके मन में उसी समय संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को ज्ञात कराने वाला चौथा ज्ञान- मनः पर्यवज्ञान भी प्रकट हो गया ।
छद्मस्थकाल
सगर
प्रभु द्वारा चारित्रधर्म स्वीकार कर लिए जाने पर सभी देवेन्द्र, देव, आदि राजा-महाराजा और उपस्थित जन प्रभु को भक्तिपूर्वक वन्दन - नमन कर अपने-अपने स्थान की ओर प्रस्थित हुए ।
दीक्षा ग्रहण करने के दूसरे दिन प्रभु को साकेत ( अयोध्या - अपर नाम विनीता ) में ही राजा ब्रह्मदत्त ने अपने यहां क्षीरान से बेले के तप का पारणा
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