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भगवान् श्री अभिनन्दन
पूर्वभव भगवान् संभवनाथ के पश्चात् चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनन्दन हुए।
इन्होंने पूर्वभव में महाबल' राजा के जन्म में आचार्य विमलचन्द्र के पास दीक्षित होकर तीर्थंकर गोत्र के बीस स्थानों की आराधना की और अन्त में आप समाधिभाव के साथ काल-धर्म प्राप्त कर विजय विमान में अनुत्तर देव
हुए।
जन्म विजय विमान से च्यवन कर महाबल का जीव अयोध्या नगरी में महाराज संवर के यहां तीर्थंकर रूप से उत्पन्न हुआ। वैशाख शुक्ला चतुर्थी को पुष्य नक्षत्र में आपका विजय विमान से च्यवन हुआ। महारानी सिद्धार्था ने गर्भ धारण किया और उसी रात्रि को १४ मंगलकारी शुभ स्वप्न देखे।
. गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला द्वितीया को पुष्य नक्षत्र के योग में माता सिद्धार्था ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। आपके जन्म के समय नगर और देश में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में सुख-शान्ति एवं प्रानन्द की लहरें फैल गई। देवों और देवपतियों ने आपका जन्म महोत्सव मनाया।
नामकरण - जबसे प्रभु माता के गर्भ में आये, सर्वत्र प्रसन्नता छा गई और जन-जन के मन में हर्ष की लहरें हिलोरें लेने लगीं । अतः माता-पिता और परिजनों ने मिलकर इनका नाम अभिनन्दन रखा।
विवाह प्रोर राज्य बाल-लीला के पश्चात् जब प्रभु ने युवावस्था में प्रवेश किया तब महाराज संवर ने योग्य कन्याओं के साथ इनका पाणिग्रहण करवाया । कुछ समय १ समवयांग सूत्र में महाबल के स्थान पर धर्मसिंह नाम दिया हुआ है। २ प्राचार्य हेमचन्द्र ने पुष्य नक्षत्र के स्थान पर अभीचि को कल्याण नक्षत्र माना है ।
[त्रि. श. पर्व, २ अ. २, श्लो. ५०-६२] ३ हरिवंशपुराण (गा० १६६-१८०) में माघ शुक्ला १२ लिखा है। ४ भगवम्मि गब्भत्थे कुलं रज्जं णगरं अभिणंदइ, त्ति तेण जणणि जणएहिं वियारिऊण गुणनिप्पण्णं अभिरणंदरणो ति णाम कयं ।
- [च० महापुरिस च०, पृ० ७५]
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