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भगवान् श्री अभिनंदन पश्चात् राजा ने पौद्गलिक सुखों से विरक्त हो निवृत्ति-मार्ग ग्रहण करने की भावना से अभिनन्दन कुमार का राज्यपद पर अभिषेक किया और स्वयं मुनिधर्म की दीक्षा लेकर प्रात्म-साधना में लग गये ।
दीक्षा और पारणा प्रायः देखा जाता है कि साधारण मनुष्य तभी तक शान्त और निर्मल बना रह पाता है जब तक कि उसके सामने विकारी साधन न पाने पावें, किन्तु सम्राट का सम्मानपूर्ण पद पाकर भी अभिनन्दन स्वामी जरा भी हर्षातिरेक से विचलित नहीं हुए। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिखाया कि महापुरुष विकार के हेतुओं में रहकर भी विकृत नहीं होते।
प्रजाजनों को कर्तव्य-पालन और नीति-धर्म की शिक्षा देते हए साढे छत्तीस लाख पूर्व वर्षों तक उत्तम प्रकार से राज्य का संचालन कर प्रभ ने दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। लोकान्तिक देवों की प्रार्थना और वर्षीदान देने के पश्चात् माघ शुक्ला द्वादशी को अभीचि-अभिजित नक्षत्र के योग में एक हजार राजाओं के साथ प्रभु ने सम्पूर्ण पापकर्मों का त्याग किया और वे पंच मुष्टिक लोच कर सिद्ध की साक्षी से संयम स्वीकार कर संसार से विमुख हो मुनि बन गये । उस समय यापको बेले' की तपस्या थी।
दीक्षा के दूसरे दिन आप साकेतपुर पधारे और वहां के महाराज इन्द्रदत्त के यहां प्रथम पारणा किया । उस समय देवों ने पंच-दिव्य प्रकट कर 'अहो दानं, अहो दानं' का दिव्य घोष किया ।
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केवलज्ञान दीक्षा ग्रहण कर वर्षों तक उग्र तपस्या करते हुए प्रभु ग्रामानुग्राम विचरते रहे । ममत्वभाव-रहित संयम-धर्म की साधना करते हुए अठारह वर्षों तक पाप छद्मस्थ-चर्या से विचरे और फिर प्रभु ने अयोध्या में शुक्ल ध्यान की प्रबल अग्नि में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय रूप कर्म के इन्धनों को जलाकर संपूर्ण घाती कर्मों का क्षय किया और पौष शुक्ला चतुर्दशी को अभिजित नक्षत्र में केवलज्ञान की उपलब्धि की।
केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर आपने देव और मनुष्यों की सभा में धर्म-देशना दी तथा धर्माधर्म का भेद समझा कर लोगों को कल्याण का पथ दिखाया। धर्मतीर्थ की स्थापना करने से आप भाव-तीर्थकर कहलाए।
१ तिलोय प. (गा० ६४४-६६७) में तेले की तपस्या का उल्लेख है। २ (क) प्राव. नि. व सत्तरिसय प्रकरण (ख) तिलोय प. में कार्तिक शु. ५ का उल्लेख है।
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