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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [अरिष्टनेमि का शौर्य-प्रदर्शन
श्रीकृष्ण ने हँसते हए कहा- "जरासन्ध ! मैं तुम्हारी तरह आत्मश्लाघा करना तो नहीं जानता, पर इतना बताये देता हूं कि तुम्हारी पुत्री जीवयशा की प्रतिज्ञा तो उसके अग्नि-प्रवेश से ही पूर्ण होगी।"
श्रीकृष्ण के उत्तर से जरासन्ध की क्रोधाग्नि और भभक उठी । उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा को प्राकान्त खींचते हुए कृष्ण पर बारणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी । कृष्ण उसके सब बागों को बीच में ही काटते रहे । दोनों उत्कट योद्धा एक दूसरे पर भीषण शस्त्रों और दिव्यास्त्रों से प्रहार करते हुए युद्ध करने लगे । उन दोनों के तीव्रगामी भारी-भरकम रथों की घोर घरघराहट से नभोमण्डल फटने सा लगा और धरती कॉपने सी लगी।
कृष्ण पर अपने सब प्रकार के घातक और अमोघ शस्त्रास्त्रों का प्रयोग कर चुकने के पश्चात् जब जरासन्ध ने देखा कि उन दिव्यास्त्रों से कृष्ण का बाल भी बांका नहीं हुआ है तो उसने क्रुद्ध हो अपने अन्तिम अमोघ-शस्त्र चक्र को कृष्ण की ओर प्रेषित किया । ज्वाला-मालाओं को उगलता हुआ कल्पान्तकालीन सूर्य के समान दुनिरीक्ष्य वह चक्ररत्न प्रलयकालीन मेघ की अमित घटाओं के समान गर्जना करता हुमा श्रीकृष्ण की ओर बढ़ा ।
उस समय समस्त यादव-सेना त्रस्त हो स्तब्ध सी रह गई। अजन, बलराम, कृष्ण और अन्य यादव योद्धानों ने चक्र को चकनाचूर कर डालने के लिए अमोघ दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया, पर सब निष्फल । चक्र कृष्ण की ओर बढ़ता ही गया। देखते ही देखते चक्र ने अपने मध्य भाग के धुरि-स्थल से कृष्ण के वज्र-कपाटोपम वक्षःस्थल पर हल्का सा प्रहार' किया, मानो चिरकाल से बिछुड़ा मित्र अपने प्रिय मित्र से, वक्ष से वक्ष लगा मिल रहा हो। तदनन्तर वह चक्र कृष्ण की तीन बार प्रदक्षिणा कर उनके दक्षिण पार्श्व में, उनके दक्षिण-स्कंध से कुछ ऊपर इस प्रकार स्थिर हो गया, मानो भेद-नीतिकुशल कृष्ण ने उसे भेद-नीति से अपना बना लिया हो।
कृष्ण ने तत्काल अपने दाहिने हाथ की तर्जनी अंगली पर चक्ररत्न को धारण किया और अनादिकाल से लोक में प्रचलित इस कहावत को चरितार्थ कर दिया कि पुण्यात्माओं के प्रभाव से दूसरों के शस्त्र भी उनके अपने हो जाते हैं।
१ एत्य तुम्बेन तच्चक्र कृष्णं वक्षस्यताब्यत ।।४५०।।
[त्रिषष्टि श. पु. प., प. ८, स. ७] २ तं च पयाहिणीकाऊरण""पलग्गं केसवकरयलम्मि ।
[चउवन महापुरिस चरियं, पृ० १८६]
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