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पौर कृष्ण द्वारा जरासंध-वष] भगवान् श्री परिष्टनेमि
३५६ दिशाएं, सारा नभोमण्डल और शत्रु काँप उठे, यादव प्राश्वस्त हो पुनः युद्ध में जूझने लगे।
अरिष्टनेमि की प्राज्ञा से मातलि ने रथ को भीषण वर्तुल-वात की तरह धुमाया। उसी समय अभिनव वारिदघटा की तरह परिष्टनेमि ने जरासन्ध की सेना पर शरवर्षा प्रारम्भ की और शत्रु-सैन्य के रयों, ध्वजामों, धनुषों और मुकुटों को उन्होंने शरवर्षा से चूर्ण-विचूर्ण कर डाला !
इस तरह प्रभु ने बहुत ही स्वल्प समय में एक लाख शत्रु-योद्धामों को नष्ट कर डाला । प्रलयकाल के प्रखर सूर्य सदृश प्रचण्ड तेजस्वी प्रभु की भोर शत्रु आँख उठा कर भी नहीं देख सके ।
प्रतिवासुदेव को केवल वासुदेव ही मारता है, इस प्रटल नियम को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अरिष्टनेमि ने जरासन्ध को नहीं मारा किन्तु अपने रथ को मनोवेग से शत्रु-राजाओं के चारों ओर घुमाते हुए जरासन्ध की सेना को अवरुद्ध किये रखा।
श्री अरिष्टनेमि के इस अत्यन्त प्रभुत, अलौकिक एवं चमत्कारपूर्ण प्रोज, तेज तथा शौर्य से यादवों की सेना में नवीन उत्साह एवं साहस भर गया और वह शत्रु सेना पर पुनः भीषण प्रहार करने लगी।
गदा के घातक प्रहार का प्रभाव कम होते ही बलराम हल-मूसल संभाले. शत्रु-सेना का संहार करने लगे । समस्त रण-क्षेत्र टूटे हुए रयों, मारे गये हाथियों, घोड़ों एवं काटे हुए मानव-मुण्डों और रुण्डों से पटा हुमा दृष्टिगोचर हो रहा था।
अपनी सेना के भीषण संहार से जरासन्ध तिलमिला उठा । उसने अपने रथ को श्रीकृष्ण की ओर बढ़ाया और अत्यन्त क्रुद्ध हो कहने लगा-"मो ग्वाले ! तु अभी तक गीदड़ की तरह केवल छल-बल पर ही जीवित है। कंस
और कालकुमार को तूने कपट से ही मारा है । ले, अब मैं तेरे प्राणों के साथ ही तेरी माया का अन्त कर जीवयशा की प्रतिज्ञा को पूर्ण करता हूं।"
१ माकृष्टाखण्डलधनुन वांभोद इब प्रभुः । ववर्ष सरपाराभिः परितस्त्रासयनरीन् ॥४२८
प्रभाक्षीद मामुर्जा लक्ष स्वाम्येकोऽपि किरीटिनाम् । उद्घान्तस्य महाम्भोः सानुमंतोऽपि के पुरः ।।४३१ ॥ परसैन्यानि रुख वास्थान्छीनेमिनमयन् रपम्.४३३ ॥
[विषष्टि स. पु. क, पर्व ८, स.७]
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