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[ महावीरकालीन देश - दशा ]
भगवान् महावीर
यूनान
में पाइथागोरस, अफलातून
श्रीर
सुकरात, ईरान में 'जरथुष्ट, फिलिस्तीन में जिरेमियां और इर्जाकेल आदि महापुरुष अपने-अपने क्षेत्र में सांस्कृतिक एवं धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार बने ।
रूढ़िवाद और अन्धविश्वासों का विरोध कर उन सभी महापुरुषों ने जनता को सही दिशा में बढ़ने का मार्ग-दर्शन किया और उन्हें शुद्ध चिन्तन की प्रबल प्रेररणा दी । समाज की तत्कालीन कुरीतियों में युगान्तरकारी परिवर्तन प्रस्तुत कर वे सही अर्थ में युगपुरुष बने । इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने ऊपर आने वाली आपदाओं का डटकर मुकाबला किया और प्रतिशोधात्मक परीषहों के आगे वे रत्ती भर भी नहीं झुके ।
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भगवान् महावीर का उपर्युक्त युगपुरुषों में सबसे उच्च, प्रमुख और बहुत ही सम्माननीय स्थान है । विश्वकल्याण के लिये उन्होंने धर्ममयी मानवता का जो आदर्श प्रस्तुत किया, वह अनुपम और अद्वितीय है ।
महावीरकालीन देश-दशा
भगवान पार्श्वनाथ के २५० वर्ष पश्चात् भगवान् श्री महावीर' चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में भारत-वसुधा पर उत्पन्न हुए। उस समय देश और समाज की दशा काफी विकृत हो चुकी थी । खास कर धर्म के नाम पर सर्वत्र आडंबर का ही बोलबाला था । पार्श्वकालीन तप, संयम और धर्म के प्रति रुचि मंद पड़ गई थी । ब्राह्मण संस्कृति के बढ़ते हुए वर्चस्व में श्रमण संस्कृति दबी जा रही थी । यज्ञ-याग और बाह्य क्रिया काण्ड को ही धर्म का प्रमुख रूप माना जाने लगा था । यज्ञ में घृत, मधु ही नहीं अपितु प्रकट रूप में पशु भी होमे जाते और उसमें अधर्म नहीं, धर्म माना जाता था । डंके की चोट कहा जाता था कि भगवान् ने यज्ञ के लिये ही पशुओं की रचना की है । २ वेदविहित यज्ञ में की जाने वाली हिंसा, हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा है । 3
धार्मिक क्रियाओं और संस्कृति संरक्षरण का भार तथाकथित ब्राह्मणों के ही अधीन था। वे चाहे विद्वान् हों या अविद्वान्, सदाचारी हों या दुराचारी,
१ ( क ) " पास जिणाओ य होइ वीरजिणो, अड्ढाइज्जसयेहि गयेहि चरिमो समुत्पन्नो । आवश्यक नियुक्ति (मलय), पृ० २४१, गाथा १७
(ख) आवश्य चूरिंग, गा० १७, पृ० २१७
२ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः । मनुस्मृति ५|२२|३६ ३ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञस्य मूल्य सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः || या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिश्चराचरे । हिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद् धर्मो हि निर्बभौ ।।
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[ मनुस्मृति, ५।२२। ३६।४४ ]
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