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________________ ५३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महावीरकालीन अग्नि के समान सदा पवित्र और पूजनीय माने जाते थे।' मनष्य और ईश्वर के बीच सम्बन्ध जोड़ने की सारी शक्ति उन्हीं के अधीन समझी जाती थी। वे जो कुछ कहते, वह अकाट्य समझा जाता और इस तरह हिंसा भी धर्म का एक प्रमुख अंग माना जाने लगा । वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के बन्धन में मानवसमाज इतना जकड़ा हुआ और उलझा हुअा था कि निम्नवर्ग के व्यक्तियों को अपनी सुख-सुविधा और कल्याण-साधन में भी किसी प्रकार की स्वतन्त्रता नहीं थी। समाज में यद्यपि अमीर और गरीब का वर्ग-संघर्ष नहीं था, फिर भी गरीबों के प्रति अमीरों की वत्सलता का स्रोत सूखता जा रहा था । ऊंच-नीच का मिथ्याभिमान मानवता को व्यथित और क्षुब्ध कर रहा था। जाति-पूजा और वेष-पूजा ने गुण-पूजा को भुला रखा था। निम्नवर्ग के लोग उच्चजातीय लोगों के सामने अपने सहज मानवीय भाव भी भलीभांति व्यक्त नहीं कर पाते थे। कई स्थानों पर तो ब्राह्मणों के साथ शूद्र चल भी नहीं सकते थे । शिक्षा-दीक्षा और वेदादि शास्त्र-श्रवण पर द्विजातिवर्ग का एकाधिपत्य था। शूद्र लोग वेद की ऋचाएं न सुन सकते थे, न पढ़ सकते थे और न बोल ही सकते थे । स्त्रीसमाज को भी वेद-पठन का अधिकार नहीं था। शूद्रों के लिए वेद सुनने पर कानों में शीशा भरने, बोलने पर जीभ काटने और ऋचाओं को कण्ठस्थ करने पर शरीर नष्ट कर देने का कठोर विधान था। इतना ही नहीं, उनके लिए प्रार्थना की जाती कि उन्हें बुद्धि न दें, यज्ञ का प्रसाद न दें और वतादि का उपदेश भी नहीं दें। स्त्री जाति को प्रायः दासी मान कर हीन दृष्टि से देखा जाता था और उन्हें किसी भी स्थिति में स्वतन्त्रता का अधिकार नहीं था। १ अविद्वांश्चैव विद्वांश्च, ब्राह्मणो देवतं महत् । प्रणीतश्चाप्रणीतश्च, यथाग्निदेवतं महत् ।। श्मशानेष्वपि तेजस्वी, पावको नव दुष्यति । हूयमानश्च यज्ञेषु, भूय एवाभिवर्द्धते ।। एवं यद्यप्यनिष्टेषु, वर्तन्ते सर्वकर्मसु । सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः , परमं दैवतं हि तत् ।। [मनुस्मृति, ६।३१७।३१८॥३१६] २ न स्त्रीशूद्रो वेदमधीयेताम् । ३ (क) वेदमुपशृण्वतस्तस्य जतुभ्यां श्रोत्रः प्रतिपूरणमुच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः । [गौतम धर्म सूत्र, पृ० १६५] (ख) न शूद्राय मति दद्यान्नोच्छिष्टं नहविष्कृतम् । न चास्योपदिशेधर्म, न चास्य, व्रतमादिशेत् ।। [वशिष्ठ स्मृति १८।१२।१३] ४ न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति । [वशिष्ठ स्मृति] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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